यह मेरी ओर से आपके लिए लिखी, साल की पहली प्रकाशित कविता है. "आजकल" पत्रिका के जनवरी अंक में यह पहली दफ़ा प्रकाशित हुयी है.
हरापन एक आदत है, बदरंग होकर गिर जाना, एक फैसला.
जिन इच्छाओं को हम जी भर पहन कर घूमे
वे अब कई जगह से फट गयी हैं.
एक पत्थर इसलिए खफ़ा है कि
नदियों ने उससे किनारा कर लिया
एक दीवार दीमकों से डरकर
असमय खुद को ढहा लेना चाहती है.
काया के तल में गहरे बैठता जाता है दुःख
इसलिए उम्र बढ़ने के साथ आदमी धीमा हो जाता है
चलते समय उसके पांव जमीं
पर नहीं पड़ते
खुशियाँ, आदमी को हल्का कर देती हैं.
हम ऐसी जलधार हैं, जिन्हें हिचकियाँ आती हैं
लेकिन हम अपने मुहानों तक कभी लौट नहीं पाते
एक दिन मैं पत्तों को झिंझोड़कर जगाऊंगी
उनसे पूछूंगी, क्या तुम परिंदों को देखकर बहक गए थे
जब उड़ने के लिए तुमने टहनी से छलांग लगा दी?
इस कविता को "सुनो कविता " के यूट्यूब चैनल पर प्रीता व्यास जी ने अपनी आवाज दी है, इच्छा हो तो आप अवश्य सुनें.
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