अध्याय -5
एक अनजाने सफ़र की शुरुआत
“तुम्हारा काम सवाल पूछना नहीं है! इन सवालों का जवाब हम तुम्हें नहीं दे
सकते। यह हमें अंदाज़ा नहीं था तुमने वह नेकलेस बेच दिया होगा! तुम्हारे लिए कपड़े हैं।
पहन लो और अपनी हालत सुधार लो। सबसे पहले हम पेंडेंट ढूँढ़गे, फिर तुम्हारे रिसर्च सेंटर जाएंगे। हमें नहीं पता तुम सच बोल
रही हो या झूठ, इसलिए जब तक डाटा और पेंडेंट हमें मिल नहीं जाते, तुम भी हमारे साथ
रहोगी और मिशन में भी हमारे साथ चलोगी।”
“लेकिन मैं यह कैसे मान लूं कि तुम डाटा और पेंडेंट मिलने के बाद मुझे और
मेरे परिवार को छोड़ दोगे?” मैंने पूछा।
धीमी हंसी के साथ वह आदमी बोला:
“हमारी बात मानने के अलावा क्या तुम्हारे पास कोई और रास्ता है? क्या तुम अपने परिवार वालों की मौत की जिम्मेदार होना चाहती हो? अगर नहीं, तो हम जैसा कहते हैं, वैसा करो। तुम्हारे लिए जो नए कपड़े हैं, तुम इन्हें
पहन लो। हम नहीं चाहते तुम्हारे जख्म और फटे कपड़ों को देखकर किसी को शक हो और
बेकार में हमें और खून बहाना पड़े। हम जैसा कहते हैं, करते
जाओ तो तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी और अगर तुमने कोई चालाकी करने की कोशिश की, तो तुम और तुम्हारा परिवार, दोनों बेमौत मारे जाएंगे। हम थोड़ी देर में
वापस आएंगे। अब चुपचाप कपड़े पहनो और मिशन के लिए तैयार हो जाओ।”
मेरे मन में कई सवाल थे। ये लोग कौन हैं? इन्हें मेरा मामूली-सा दिखने वाला पुश्तैनी लॉकेट
क्यों चाहिए। क्या मेरी जैविक माँ की इनसे कोई पहचान है? यह
मेरे साथ क्या हो रहा है? और वह कौन-सा
मिशन है, जिसका ये लोग ज़िक्र कर रहे हैं। लेकिन मैं समझ गई
थी, इनसे कुछ पूछने का कोई मतलब नहीं है। ये लोग मुझे कुछ
नहीं बताएँगे।
वे लोग कमरा खाली करके जा चुके थे। उनमें से एक ने जाते समय मेरे हाथ खोल दिए
और मुझे पानी के दो पाउच के साथ कपड़े का बैग और एक जोड़ी जूते दिए। मैंने उस समय
उसे करीब से देखा। उसने चेहरे पर सफ़ेद मास्क पहना हुआ था। वह मास्क सतह पर चमकीला
था, जैसे सिरेमिक का हो। शायद बाकी सब ने भी
ऐसे ही मास्क पहन रखे होंगे। रोशनी के साए में दूर से देखने पर कद–काठी में वे सब आदमी एक दूसरे की फोटोकॉपी लग रहे थे। जैसे एक ही सांचे से
ढाल कर निकाले गए हों।
पानी देखकर मुझे ख्याल आया कि न जाने कब से मैं बहुत प्यासी हूँ। मैंने घटाघट
एक पाउच का पूरा पानी पी लिया। दूसरे पाउच से मैंने अपने चेहरे और खरोचों की सफाई
की। फिर मैंने उनके दिए कपड़े–जूते पहन
लिए। मुझे वे फिट आए। शरीर से चिपका हुआ काले लेदर का बॉडी सूट जैसे मेरे लिए ही
बनाया गया हो। इनको मेरा साइज़ कैसे पता है? कई सवालों की तरह
यह सवाल भी अभी बेमानी है।
मैं तैयार होकर कुर्सी पर बैठ गई और उनका इंतज़ार करने लगी।
जिस तरह से इन लोगों ने मेरी माँ का ज़िक्र किया था, मैं सोच में पड़ गई थी कि
क्या ये लोग मेरी माँ को जानते थे? बचपन में मैं जब भी सरला माँ से अपनी असली माँ-पिता
के बारे में सवाल करती थी, वे मुझसे सिर्फ़ इतना ही कहती कि वे एक–एक करके दुर्घटनाओं में मारे गए। अधिक पूछने पर वे मुझे यह
कहकर टाल देती थी कि क्या मैं तुम्हें प्यार नहीं करती कि तुम हमेशा अनुभा के बारे
में पूछती रहती हो? फिर मैंने पूछना छोड़ दिया और अपनी
ज़िन्दगी में व्यस्त हो गई। लेकिन मेरे मन से मेरी माँ और पिता को लेकर सवाल कभी गए
नहीं थे। मैंने एक-दो बार उनके बारे में पता करने की कोशिश
की, लेकिन मेरे हाथ कोई खास जानकारी नहीं लगी।
मैं सिर्फ़ इतना ही पता कर सकी कि मेरी माँ अनुभा कौशल एक समृद्ध जमींदार की
बेटी थी, जिन्हें मेडिकल पढ़ने के दौरान एक विजातीय
मनुष्य से प्रेम हो गया था। पिता ने उनका यह प्रेम स्वीकार नहीं किया और वे अपने
पिता की मर्जी के खिलाफ़ मेरे पिता समर्थ कौशल से ब्याह करके कहीं और जाकर बस गई।
फिर उन दोनों में अलगाव हुआ और मेरी माँ मुझे लेकर अलग रहने चली आई। स्वतंत्र भारत
में जमींदारी नहीं बची। उससे जमा किये गये धन का भी धीरे धीरे करके नाश हो गया। जब
तक माँ वापस अपने घर आई, उनकी माँ की मृत्यु हो गई थी। पिता
ने तब भी उन्हें स्वीकार नहीं किया। फिर कुछ दिन बाद किसी दुर्घटना में वे भी चल
बसे। ठाकुर साहब के जाने के बाद उनका घर खंडहर बन गया। रिश्तेदार बची–खुची सम्पत्ति हड़प गए। मुझे यही कहानी बताई गई थी। इससे अधिक कुछ भी मुझे
मालूम नहीं था।
माँ इन्ही हालात में अपनी सहेली के पास मुझे छोड़कर कहीं गायब हो गई। वह कहाँ गई?
क्यों गई? यह किसी को मालूम नहीं था। बहुत बरस बाद मैंने अख़बार में पढ़ा कि अनुभा
कौशल नामक एक औरत, जो किन्ही के साथ लगकर तस्करी का काम करने लगी थी, पुलिस से
भागते समय मध्य हिमालय के किसी हिल स्टेशन में एक कार दुर्घटना में मारी गई है,
लाश का कुछ पता नहीं चला। सबने मान लिया कि जंगल में कोई जानवर उनकी लाश उठा ले
गया होगा और खा गया होगा। सबके साथ मैंने भी मान लिया कि वे मर चुकी हैं, वैसे भी
उन्होंने अपनी मर्जी से मुझे छोड़ा था। इतना तो मुझे मालूम था।
मेरे ख्यालों की यह श्रृंखला तब टूटी,
जब बाहर दरवाज़ा खोलने की आवाज आई। थोड़ी देर में दो लोग अन्दर आए और मुझे बाहर चलने
का इशारा किया। बाहर बड़ा-सा खुला हॉल था। यह किसी पुराने
वेयरहाउस का मुख्य भाग लग रहा था। बहुत सारे कार्डबोर्ड इधर–उधर
बिखरे पड़े थे। कहीं–कहीं से छत चू रही थी। पानी टपकने की
आवाज भी उस बियाबान में इतनी साफ़ थी कि इससे सिहरन हो रही थी। मैं चुपचाप एक तरफ़
खड़ी हो गई। मुझे बहुत डर लग रहा था। इतने में हॉल का बड़ा दरवाज़ा खुला और एक वैन
अन्दर आई। उसमें से दो आदमी उतरे। उनके भी चेहरे ढंके हुए थे। उन्होंने वैन का
पिछला दरवाज़ा खोला और उसमें से एक औरत और एक लड़का बाहर आए।
यह औरत और कोई नहीं, मेरी माँ सरला शर्मा थी। ये लोग उन्हें और मुझसे दो साल
छोटे मेरे भाई अनूप को बंदी बनाकर यहाँ ले आए थे। मुझे जीवन में पहली बार भयानक डर
का एहसास हुआ। अपने जीवन की अंतिम निधियों को खो देने का डर। रुलाई का एक गोला
मेरे अन्दर उबला। यह दोनों मेरे जीवन के अंतिम स्तम्भ हैं। इनके अलावा इस दुनिया
में मेरा कोई नहीं है। मैं किसी कीमत पर इन्हें नहीं खोना चाहती।
अध्याय -6
दुःख की विरासत
माँ और भाई को सामने देख कर मैं बिखर-सी
गई।
माँ-माँ, चिल्लाती हुई मैं सरला माँ की तरफ़ भागी और उनसे लिपट गई। हम दोनों ही
रोने लगे। मैं रोना नियंत्रित करके माँ को सांत्वना देने लगी कि कुछ नहीं होगा, सब
ठीक हो जाएगा। भाई भी माँ और मुझे पकड़ कर हमारे साथ ही रो रहा था। उन्हें देखकर
मैंने खुद को सम्हाला। अपने अन्दर की तमाम हिम्मत इकट्ठा की, अपने आंसू पोछे और
माँ से बोली:
“माँ तुम चिंता मत करो। मैं ज़रूर तुम्हें यहाँ से निकाल कर ले जाऊंगी। मैं
सब ठीक कर दूँगी। एकदम नहीं डरना और मेरे लौटने का इंतज़ार करना।”
माँ ने हाँ में सर हिलाया। मैंने भाई का माथा चूमा और नकाबपोशों की तरफ़ पलट कर
बोली-
“अगर मुझे यह करना ही है, तो देर करने का अब कोई मतलब
नहीं है। बताओ, क्या प्लान है? पहले
कहाँ जाना है?”
उन्होंने मुझे कार में बैठने का इशारा किया।
“तुम्हें प्लान रास्ते में समझा दिया जाएगा। मिशन पूरा होने तक तुम्हारी
माँ और भाई हमारे यहाँ बंदी रहेंगे।”
मैं चुपचाप कार की ओर चल दी। कार में बैठते ही उन्होंने मेरा सर काले कपड़े से
ढंक दिया। वे नहीं चाहते थे कि इस जगह की लोकेशन के बारे में मुझे कुछ मालूम हो।
कार चल रही थी और उसके साथ ही मेरे विचारों की रेल भी अतीत में कहीं चल रही थी।
भले ही सरला शर्मा मेरी सगी माँ नहीं हैं,
लेकिन उनके साथ मेरा बचपन बुरा नहीं बीता है।
मेरी माँ अनुभा के जाने के बाद सरला शर्मा ने मेरे पालन पोषण में कोई कमी नहीं
छोड़ी। वह चाहती, तो मुझे किसी अनाथ-आश्रम
में रख कर अपनी ज़िन्दगी सुख–शांति से बिता सकती थी, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। अनूप का सगा पिता अभय शर्मा कभी मुझे अपने
परिवार का हिस्सा नहीं बनाना चाहता था। उसने पहले दिन ही सरला माँ के समक्ष यह
शर्त रखी कि वह या तो मुझे किसी अनाथ-आश्रम पहुंचा दे या फिर
उनसे अपने वैवाहिक रिश्ते को भूल जाए। उसे अपने और अपने परिवार के लिए एक समर्पित
पत्नी चाहिए थी। दूसरी तरफ़ सरला शर्मा के लिए अपनी बचपन की सहेली अनुभा के अंश को
छोड़ पाना संभव नहीं था। उन्होंने मेरी ज़िन्दगी की दुहाई दी और कहा कि दो महीने की
बच्ची को अनाथ-आश्रम में छोड़ना सही नहीं है। मुग्धा को थोडा बड़ा हो जाने दीजिए, फिर इसे अनाथ-आश्रम पहुँचा देंगे। अभय बेमन से मान गए।
मुझे याद है, कई बार मैंने सरला माँ से पूछा कि क्या आप दोनों सिर्फ़ मेरे
कारण अलग हुए? लेकिन उन्होंने हर बार मना किया। माँ ने
मुझे बताया कि इस घटना के पहले भी उनके और अभय शर्मा के रिश्ते बहुत आदर्श नहीं
थे। सरला माँ ने मुझे अपने विवाह के बाद के जीवन के बारे में विस्तार से बताया।
उन्होंने बताया कि उनके पिता मानसिक रोगी थे। सरला के बचपन में ही एक बार वे
घर से बिना बताए आधी रात के समय बाहर निकल गए और फिर कभी वापस नहीं लौटे। उनकी माँ
विजया देवी ने ही सरला और उनके दो भाइयों का पालन-पोषण किया। सरला ने जब दसवीं की पढ़ाई पूरी कर ली, तो
रिश्तेदारों ने अपनी जिम्मेदारी मान कर सरला का ब्याह अभय से तय कर दिया। विजया जी
भी न नहीं कर सकीं। हालाँकि वे चाहती थीं कि सरला कॉलेज की पढ़ाई करे, लेकिन न उनके पास कोई आर्थिक सहारा था, न ही अपनी कोई जायदाद थी। वे पूरी
तरह अपने रिश्तेदारों की मोहताज थीं। उनके भाइयों ने तर्क दिया कि अभय की सरकारी
नौकरी और खेती है। सरला का जीवन अभय के साथ आराम से बीतेगा। विजया ने अपने मन को
समझा लिया कि सरला का विवाह अभय से कर देना ही उसकी बेटी के जीवन के लिए सबसे सही
फ़ैसला है। हमारे समाज में आज भी बेटी को बोझ ही समझा जाता है। ये बातें तो आज से
कई दशक पहले की है। न बालिका सरला के पास कोई चारा था, न ही
उनकी माँ विजया देवी के पास। उनकी परनिर्भरता ने उनके सपने कुतर दिए थे।
अभय शर्मा सी-ग्रेड सरकारी कर्मचारी थे। रेलवे में नौकरी
करते थे। उनकी चार बहनें थीं। वे अकेले कमाने वाले थे। सुदूर किसी गाँव के छोटे से
स्टेशन में उनकी पोस्टिंग थी। अभय सिर्फ़ छुट्टियों और त्योहारों में घर आते थे।
सरला शर्मा अभय के माता–पिता और बहनों के साथ संयुक्त परिवार
में रहती थी।
मर्दों के द्वारा तय किये गए इस रिश्ते में घर की औरतों की रजामंदी नहीं थी, ऐसा सरला माँ को बाद में पता चला। उनकी सास किसी पागल बाप की
बेटी को घर की बहू नहीं बनाना चाहती थी। वह समझतीं थीं कि पागलपन आनुवांशिक होता
है, और यह स्त्री उनके पोते–पोतियों को भी अपने पिता की बीमारी उपहार में दे देगी।
यह पूर्वाग्रह, नापसंदगी के बीज की तरह सरला के विवाहित जीवन में पहले दिन ही बो
दिया गया। जब परम्परा और रीति के तहत सरला के साथ लाये संदूक को उनकी सास–ननदों ने खोलकर देखा, उसमें से मामूली कपड़ों के साथ चाँदी की पायल का एक
जोड़ा पाकर वे निराश और दुखी हुईं। उन्हें और अधिक गहनों की उम्मीद थी। इस निराशा
और उनके पूर्वाग्रह ने कालांतर में नफरत का रूप ले लिया।
सरला शर्मा की ननदों की शादी में उनके ससुराल वालों को खेत और जमीन गिरवी रखने
पड़े, जिन्हें वे फिर छुड़ा नहीं सके। अगर बेटे की
नौकरी न होती, तो उनके भीख मांगने के दिन आ जाते। अभय का
परिवार लड़कियों की शादी करने में बुरी तरह गरीब हो गया था। सरला को अब पहले से
अधिक काम करना पड़ता था। वह सुबह पांच बजे कड़क ठंड में उठ जाती थीं। पशुओं को चारा
देती। गोहाल और घर साफ़ करती। नहा कर सब के लिए नाश्ता बनाती। फिर खेतों में काम
करती। वे उसे उन मजदूरिनों से भी कम खाना देते थे जो दूसरे के खेतों में काम करने
के लिए आती थी। इतने पर भी उनकी सास का दिल नहीं भरा। वह अभय की दूसरी शादी करके
मोटा दहेज़ लेना चाहती थी। इसके लिए उन्होंने अपने बेटे को सरला माँ को छोड़ने के
लिए उकसाना शुरू किया। उन्होंने विवाह के तुरंत बाद ही इसकी कोशिशें शुरू कर दी
थीं। अभय शर्मा जब छुट्टी में घर आते, सरला की सास उन्हें
सरला के आलस्य के लम्बे किस्से सुनाती थी। वे जान बूझ कर उन दिनों सरला को कम काम
करने देतीं थी।