Monday, January 23, 2023

"लवली" के फल

 कल साप्ताहिक सब्जी ख़रीदने के दौरान मुझे "लवली" के फल दिखायी पड़े. लवली आंवलें जैसे ही होती है लेकिन स्वाद में थोड़ी कम कडवाहट, अधिक अम्लीय और कम काष्ठीय. इसका आकार जैसा की आप चित्र में देख सकते हैं, षट्कोण जैसा होता हैं आंवले जैसा गोल नहीं होता. इसे मैंने उत्तर भारत में कभी नहीं देखा था.

 


 

संस्कृत साहित्य में "लवली" का अक्सर ज़िक्र मिलता है. इसपर मेरी एक कविता भी है. जिसे मैंने कठ बीज का शीर्षक दिया है.



कठबीज
कसैले- खट्टे आमले का कठबीज है दिल
मरूं तो गाड़ना नहीं, जला देना मुझे
कसैले फलों का पेड़ किसी के काम का नहीं होता.

फीका न रह जाए इसलिए मन को
अधिक ही पका दिया मैंने

देर तक पकी चाय कि तरह
तेज़ और कड़वे हो गये मन के बोल

किसी को परोसने से पहले
इसकी थोड़ी मात्रा में
बहुत सारा पानी मिलाती हूँ 

त्वचा छोड़ कर मेरी पलकें अक्सर
सूदूर ब्रह्माण्ड में तैरती हैं, बिना पतवार

जितनी देर प्रेमी एक दूसरे को अपलक देखते हैं 
मैं उनकी पलकें ओढ़कर सोती हूँ

देर तक देखती रही मैं अपनी हथेलियाँ
हाथों कि रेखाएं
झुर्रियां बनकर माथे पर ऊग आयीं

हीरा बनीं दिल में गहरे दबी आंसू की एक बूँद
उसी के बराबर का कोई दूसरा हीरा
तराश सकेगा उसे   

जीवन के सागर में दुःख के सब भारी पत्थर डूबे
कविता की पंक्तियाँ लिखी थी जिनपर 
तैरे केवल वे ही दुःख  

उनपर पैर रखकर ही पार किया मैंने अथाह जल
कविता सेतु है मेरा
       मेरे ईश्वर का नाम शब्द है.

Tuesday, January 3, 2023

वनिका - अध्याय 5 और 6

 

अध्याय -5

एक अनजाने सफ़र की शुरुआत

“तुम्हारा काम सवाल पूछना नहीं है! इन सवालों का जवाब हम तुम्हें नहीं दे सकते। यह हमें अंदाज़ा नहीं था तुमने वह नेकलेस बेच दिया होगा! तुम्हारे लिए कपड़े हैं। पहन लो और अपनी हालत सुधार लो। सबसे पहले हम पेंडेंट ढूँढ़गे, फिर तुम्हारे रिसर्च सेंटर जाएंगे। हमें नहीं पता तुम सच बोल रही हो या झूठ, इसलिए जब तक डाटा और पेंडेंट हमें मिल नहीं जाते, तुम भी हमारे साथ रहोगी और मिशन में भी हमारे साथ चलोगी।

लेकिन मैं यह कैसे मान लूं कि तुम डाटा और पेंडेंट मिलने के बाद मुझे और मेरे परिवार को छोड़ दोगे?” मैंने पूछा।

धीमी हंसी के साथ वह आदमी बोला:

हमारी बात मानने के अलावा क्या तुम्हारे पास कोई और रास्ता है? क्या तुम अपने परिवार वालों की मौत की जिम्मेदार होना चाहती हो? अगर नहीं, तो हम जैसा कहते हैं, वैसा करो। तुम्हारे लिए जो नए कपड़े हैं, तुम इन्हें पहन लो। हम नहीं चाहते तुम्हारे जख्म और फटे कपड़ों को देखकर किसी को शक हो और बेकार में हमें और खून बहाना पड़े। हम जैसा कहते हैं, करते जाओ तो तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी और अगर तुमने कोई चालाकी करने की कोशिश की, तो तुम और तुम्हारा परिवार, दोनों बेमौत मारे जाएंगे। हम थोड़ी देर में वापस आएंगे। अब चुपचाप कपड़े पहनो और मिशन के लिए तैयार हो जाओ।

मेरे मन में कई सवाल थे। ये लोग कौन हैं? इन्हें मेरा मामूली-सा दिखने वाला पुश्तैनी लॉकेट क्यों चाहिए। क्या मेरी जैविक माँ की इनसे कोई पहचान है? यह मेरे साथ क्या हो रहा है? और वह कौन-सा मिशन है, जिसका ये लोग ज़िक्र कर रहे हैं। लेकिन मैं समझ गई थी, इनसे कुछ पूछने का कोई मतलब नहीं है। ये लोग मुझे कुछ नहीं बताएँगे।

वे लोग कमरा खाली करके जा चुके थे। उनमें से एक ने जाते समय मेरे हाथ खोल दिए और मुझे पानी के दो पाउच के साथ कपड़े का बैग और एक जोड़ी जूते दिए। मैंने उस समय उसे करीब से देखा। उसने चेहरे पर सफ़ेद मास्क पहना हुआ था। वह मास्क सतह पर चमकीला था, जैसे सिरेमिक का हो। शायद बाकी सब ने भी ऐसे ही मास्क पहन रखे होंगे। रोशनी के साए में दूर से देखने पर कदकाठी में वे सब आदमी एक दूसरे की फोटोकॉपी लग रहे थे। जैसे एक ही सांचे से ढाल कर निकाले गए हों।

पानी देखकर मुझे ख्याल आया कि न जाने कब से मैं बहुत प्यासी हूँ। मैंने घटाघट एक पाउच का पूरा पानी पी लिया। दूसरे पाउच से मैंने अपने चेहरे और खरोचों की सफाई की। फिर मैंने उनके दिए कपड़ेजूते पहन लिए। मुझे वे फिट आए। शरीर से चिपका हुआ काले लेदर का बॉडी सूट जैसे मेरे लिए ही बनाया गया हो। इनको मेरा साइज़ कैसे पता है? कई सवालों की तरह यह सवाल भी अभी बेमानी है।

मैं तैयार होकर कुर्सी पर बैठ गई और उनका इंतज़ार करने लगी। 

जिस तरह से इन लोगों ने मेरी माँ का ज़िक्र किया था, मैं सोच में पड़ गई थी कि क्या ये लोग मेरी माँ को जानते थे? बचपन में मैं जब भी सरला माँ से अपनी असली माँ-पिता के बारे में सवाल करती थी, वे मुझसे सिर्फ़ इतना ही कहती कि वे एकएक करके दुर्घटनाओं में मारे गए। अधिक पूछने पर वे मुझे यह कहकर टाल देती थी कि क्या मैं तुम्हें प्यार नहीं करती कि तुम हमेशा अनुभा के बारे में पूछती रहती हो? फिर मैंने पूछना छोड़ दिया और अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त हो गई। लेकिन मेरे मन से मेरी माँ और पिता को लेकर सवाल कभी गए नहीं थे। मैंने एक-दो बार उनके बारे में पता करने की कोशिश की, लेकिन मेरे हाथ कोई खास जानकारी नहीं लगी।

मैं सिर्फ़ इतना ही पता कर सकी कि मेरी माँ अनुभा कौशल एक समृद्ध जमींदार की बेटी थी, जिन्हें मेडिकल पढ़ने के दौरान एक विजातीय मनुष्य से प्रेम हो गया था। पिता ने उनका यह प्रेम स्वीकार नहीं किया और वे अपने पिता की मर्जी के खिलाफ़ मेरे पिता समर्थ कौशल से ब्याह करके कहीं और जाकर बस गई। फिर उन दोनों में अलगाव हुआ और मेरी माँ मुझे लेकर अलग रहने चली आई। स्वतंत्र भारत में जमींदारी नहीं बची। उससे जमा किये गये धन का भी धीरे धीरे करके नाश हो गया। जब तक माँ वापस अपने घर आई, उनकी माँ की मृत्यु हो गई थी। पिता ने तब भी उन्हें स्वीकार नहीं किया। फिर कुछ दिन बाद किसी दुर्घटना में वे भी चल बसे। ठाकुर साहब के जाने के बाद उनका घर खंडहर बन गया। रिश्तेदार बचीखुची सम्पत्ति हड़प गए। मुझे यही कहानी बताई गई थी। इससे अधिक कुछ भी मुझे मालूम नहीं था।

माँ इन्ही हालात में अपनी सहेली के पास मुझे छोड़कर कहीं गायब हो गई। वह कहाँ गई? क्यों गई? यह किसी को मालूम नहीं था। बहुत बरस बाद मैंने अख़बार में पढ़ा कि अनुभा कौशल नामक एक औरत, जो किन्ही के साथ लगकर तस्करी का काम करने लगी थी, पुलिस से भागते समय मध्य हिमालय के किसी हिल स्टेशन में एक कार दुर्घटना में मारी गई है, लाश का कुछ पता नहीं चला। सबने मान लिया कि जंगल में कोई जानवर उनकी लाश उठा ले गया होगा और खा गया होगा। सबके साथ मैंने भी मान लिया कि वे मर चुकी हैं, वैसे भी उन्होंने अपनी मर्जी से मुझे छोड़ा था। इतना तो मुझे मालूम था।

मेरे ख्यालों की यह श्रृंखला तब टूटी, जब बाहर दरवाज़ा खोलने की आवाज आई। थोड़ी देर में दो लोग अन्दर आए और मुझे बाहर चलने का इशारा किया। बाहर बड़ा-सा खुला हॉल था। यह किसी पुराने वेयरहाउस का मुख्य भाग लग रहा था। बहुत सारे कार्डबोर्ड इधरउधर बिखरे पड़े थे। कहींकहीं से छत चू रही थी। पानी टपकने की आवाज भी उस बियाबान में इतनी साफ़ थी कि इससे सिहरन हो रही थी। मैं चुपचाप एक तरफ़ खड़ी हो गई। मुझे बहुत डर लग रहा था। इतने में हॉल का बड़ा दरवाज़ा खुला और एक वैन अन्दर आई। उसमें से दो आदमी उतरे। उनके भी चेहरे ढंके हुए थे। उन्होंने वैन का पिछला दरवाज़ा खोला और उसमें से एक औरत और एक लड़का बाहर आए।

यह औरत और कोई नहीं, मेरी माँ सरला शर्मा थी। ये लोग उन्हें और मुझसे दो साल छोटे मेरे भाई अनूप को बंदी बनाकर यहाँ ले आए थे। मुझे जीवन में पहली बार भयानक डर का एहसास हुआ। अपने जीवन की अंतिम निधियों को खो देने का डर। रुलाई का एक गोला मेरे अन्दर उबला। यह दोनों मेरे जीवन के अंतिम स्तम्भ हैं। इनके अलावा इस दुनिया में मेरा कोई नहीं है। मैं किसी कीमत पर इन्हें नहीं खोना चाहती।

 


अध्याय -6

दुःख की विरासत

माँ और भाई को सामने देख कर मैं बिखर-सी गई।

माँ-माँ, चिल्लाती हुई मैं सरला माँ की तरफ़ भागी और उनसे लिपट गई। हम दोनों ही रोने लगे। मैं रोना नियंत्रित करके माँ को सांत्वना देने लगी कि कुछ नहीं होगा, सब ठीक हो जाएगा। भाई भी माँ और मुझे पकड़ कर हमारे साथ ही रो रहा था। उन्हें देखकर मैंने खुद को सम्हाला। अपने अन्दर की तमाम हिम्मत इकट्ठा की, अपने आंसू पोछे और माँ से बोली:

माँ तुम चिंता मत करो। मैं ज़रूर तुम्हें यहाँ से निकाल कर ले जाऊंगी। मैं सब ठीक कर दूँगी। एकदम नहीं डरना और मेरे लौटने का इंतज़ार करना।

माँ ने हाँ में सर हिलाया। मैंने भाई का माथा चूमा और नकाबपोशों की तरफ़ पलट कर बोली-

अगर मुझे यह करना ही है, तो देर करने का अब कोई मतलब नहीं है। बताओ, क्या प्लान है? पहले कहाँ जाना है?”

उन्होंने मुझे कार में बैठने का इशारा किया।

तुम्हें प्लान रास्ते में समझा दिया जाएगा। मिशन पूरा होने तक तुम्हारी माँ और भाई हमारे यहाँ बंदी रहेंगे।

मैं चुपचाप कार की ओर चल दी। कार में बैठते ही उन्होंने मेरा सर काले कपड़े से ढंक दिया। वे नहीं चाहते थे कि इस जगह की लोकेशन के बारे में मुझे कुछ मालूम हो। कार चल रही थी और उसके साथ ही मेरे विचारों की रेल भी अतीत में कहीं चल रही थी।

भले ही सरला शर्मा मेरी सगी माँ नहीं हैं, लेकिन उनके साथ मेरा बचपन बुरा नहीं बीता है।

मेरी माँ अनुभा के जाने के बाद सरला शर्मा ने मेरे पालन पोषण में कोई कमी नहीं छोड़ी। वह चाहती, तो मुझे किसी अनाथ-आश्रम में रख कर अपनी ज़िन्दगी सुखशांति से बिता सकती थी, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। अनूप का सगा पिता अभय शर्मा कभी मुझे अपने परिवार का हिस्सा नहीं बनाना चाहता था। उसने पहले दिन ही सरला माँ के समक्ष यह शर्त रखी कि वह या तो मुझे किसी अनाथ-आश्रम पहुंचा दे या फिर उनसे अपने वैवाहिक रिश्ते को भूल जाए। उसे अपने और अपने परिवार के लिए एक समर्पित पत्नी चाहिए थी। दूसरी तरफ़ सरला शर्मा के लिए अपनी बचपन की सहेली अनुभा के अंश को छोड़ पाना संभव नहीं था। उन्होंने मेरी ज़िन्दगी की दुहाई दी और कहा कि दो महीने की बच्ची को अनाथ-आश्रम में छोड़ना सही नहीं है। मुग्धा को थोडा बड़ा हो जाने दीजिए, फिर इसे अनाथ-आश्रम पहुँचा देंगे। अभय बेमन से मान गए।

मुझे याद है, कई बार मैंने सरला माँ से पूछा कि क्या आप दोनों सिर्फ़ मेरे कारण अलग हुए? लेकिन उन्होंने हर बार मना किया। माँ ने मुझे बताया कि इस घटना के पहले भी उनके और अभय शर्मा के रिश्ते बहुत आदर्श नहीं थे। सरला माँ ने मुझे अपने विवाह के बाद के जीवन के बारे में विस्तार से बताया।

उन्होंने बताया कि उनके पिता मानसिक रोगी थे। सरला के बचपन में ही एक बार वे घर से बिना बताए आधी रात के समय बाहर निकल गए और फिर कभी वापस नहीं लौटे। उनकी माँ विजया देवी ने ही सरला और उनके दो भाइयों का पालन-पोषण किया। सरला ने जब दसवीं की पढ़ाई पूरी कर ली, तो रिश्तेदारों ने अपनी जिम्मेदारी मान कर सरला का ब्याह अभय से तय कर दिया। विजया जी भी न नहीं कर सकीं। हालाँकि वे चाहती थीं कि सरला कॉलेज की पढ़ाई करे, लेकिन न उनके पास कोई आर्थिक सहारा था, न ही अपनी कोई जायदाद थी। वे पूरी तरह अपने रिश्तेदारों की मोहताज थीं। उनके भाइयों ने तर्क दिया कि अभय की सरकारी नौकरी और खेती है। सरला का जीवन अभय के साथ आराम से बीतेगा। विजया ने अपने मन को समझा लिया कि सरला का विवाह अभय से कर देना ही उसकी बेटी के जीवन के लिए सबसे सही फ़ैसला है। हमारे समाज में आज भी बेटी को बोझ ही समझा जाता है। ये बातें तो आज से कई दशक पहले की है। न बालिका सरला के पास कोई चारा था, न ही उनकी माँ विजया देवी के पास। उनकी परनिर्भरता ने उनके सपने कुतर दिए थे।      

अभय शर्मा सी-ग्रेड सरकारी कर्मचारी थे। रेलवे में नौकरी करते थे। उनकी चार बहनें थीं। वे अकेले कमाने वाले थे। सुदूर किसी गाँव के छोटे से स्टेशन में उनकी पोस्टिंग थी। अभय सिर्फ़ छुट्टियों और त्योहारों में घर आते थे। सरला शर्मा अभय के मातापिता और बहनों के साथ संयुक्त परिवार में रहती थी।

मर्दों के द्वारा तय किये गए इस रिश्ते में घर की औरतों की रजामंदी नहीं थी, ऐसा सरला माँ को बाद में पता चला। उनकी सास किसी पागल बाप की बेटी को घर की बहू नहीं बनाना चाहती थी। वह समझतीं थीं कि पागलपन आनुवांशिक होता है, और यह स्त्री उनके पोते–पोतियों को भी अपने पिता की बीमारी उपहार में दे देगी। यह पूर्वाग्रह, नापसंदगी के बीज की तरह सरला के विवाहित जीवन में पहले दिन ही बो दिया गया। जब परम्परा और रीति के तहत सरला के साथ लाये संदूक को उनकी सासननदों ने खोलकर देखा, उसमें से मामूली कपड़ों के साथ चाँदी की पायल का एक जोड़ा पाकर वे निराश और दुखी हुईं। उन्हें और अधिक गहनों की उम्मीद थी। इस निराशा और उनके पूर्वाग्रह ने कालांतर में नफरत का रूप ले लिया। 

सरला शर्मा की ननदों की शादी में उनके ससुराल वालों को खेत और जमीन गिरवी रखने पड़े, जिन्हें वे फिर छुड़ा नहीं सके। अगर बेटे की नौकरी न होती, तो उनके भीख मांगने के दिन आ जाते। अभय का परिवार लड़कियों की शादी करने में बुरी तरह गरीब हो गया था। सरला को अब पहले से अधिक काम करना पड़ता था। वह सुबह पांच बजे कड़क ठंड में उठ जाती थीं। पशुओं को चारा देती। गोहाल और घर साफ़ करती। नहा कर सब के लिए नाश्ता बनाती। फिर खेतों में काम करती। वे उसे उन मजदूरिनों से भी कम खाना देते थे जो दूसरे के खेतों में काम करने के लिए आती थी। इतने पर भी उनकी सास का दिल नहीं भरा। वह अभय की दूसरी शादी करके मोटा दहेज़ लेना चाहती थी। इसके लिए उन्होंने अपने बेटे को सरला माँ को छोड़ने के लिए उकसाना शुरू किया। उन्होंने विवाह के तुरंत बाद ही इसकी कोशिशें शुरू कर दी थीं। अभय शर्मा जब छुट्टी में घर आते, सरला की सास उन्हें सरला के आलस्य के लम्बे किस्से सुनाती थी। वे जान बूझ कर उन दिनों सरला को कम काम करने देतीं थी।

Friday, December 23, 2022

वनिका - अध्याय - 4

 परछाइयों की दौड़

 मैंने कोई जवाब नहीं दिया। वैसे ही एक्टिंग करती रही। आँखें नहीं खोली।अचानक मेरे शरीर से कई लीटर बर्फीला पानी टकराया। लगा, जैसे किसी ने मेरी पूरी देह को बर्फ के चिलचिलाते कुंड में डाल दिया हो। मुझे इसकी बिलकुल उम्मीद नहीं थी। मैं थोडा चौंकी। फिर भी मैंने बेहोश होने का नाटक जारी रखा। मेरे केशों ने मेरा चेहरा ढंक रखा था। मैंने अपने आप को एकदम स्थिर किये रखा। ज़रा भी नहीं हिली। उनकी तरफ़ से कोई आवाज नहीं आई। शायद वे लोग इशारे में बातें कर रहे थे।

अगर तुम आँखें नहीं खोलोगी, तो मजबूरन हमें तुमको पैर में गोली मारनी पड़ेगी! शायद इससे तुम अपना यह नाटक बंद कर दो!

फिर से वही आवाज आई। मैंने कोई हरकत नहीं की। इतने में गोली चलने की आवाज आई। लगा, मेरे दाहिने कान के पास किसी ने झन्नाटेदार बम फोड़ दिया हो। उनमें से किसी ने शायद मुझे डराने के लिए मेरे कान के पास से रिवाल्वर फायर किया था। मैं डर और आवाज की तीव्रता से चीख पड़ी।

अब ठीक है!उसी आवाज ने कहा।

कम से कम अब हम बात कर सकते हैं!

मैंने आँखें खोल दी थी। सामने देखा, रोशनी इस तरह से की गई थी कि मैं सिर्फ़ सामने मौजूद लोगों की आदमकद छायारेखा ही देख पा रही थी। जैसे किसी ने उन्हें कार्डबोर्ड के पुतले-सा काट कर रोशनी के आगे खड़ा कर दिया हो। उनका चेहरा, वेशभूषा, कुछ भी साफ़ नहीं दिख रहा था। वे आठ-दस लोग थे। जिसमें से एक, उसी कुरसी पर बैठा हुआ था, जिसे मैंने थोड़ी देर पहले टेबल के पास रखे देखा था। बाकी सात उसके दोनों ओर हाथ बांधे बॉडीगार्ड्स की तरह खड़े थे। वे सब काले सूट और काले जूते पहने थे। उनके कानों में सीक्रेट एजेंट्स की तरह माइक्रोफोन के घुंघराले तार लगे दिख रहे थे। मैंने जोर डालकर देखने की कोशिश की कि क्या उन्होंने काले चश्मे भी पहने हैं। शायद अभी रात के समय यह ज़रूरी नहीं था। मुझे चश्मे नहीं दिखे। वैसे भी मैं उनकी आँखें देख नहीं पा रही थी, तो यह कोशिश गैर ज़रूरी थी। ऐसे लोग चश्मे पहनते ही इसलिए हैं कि लोग उनकी आँखों की मूवमेंट्स न देख सकें। लोग यह न जान पाएं कि वे कहाँ देख रहे हैं। उनका पहनावा एकदम फिल्मों में दिखने वाले हाई प्रोफाइल सिक्युरिटी एजेंट्स जैसा था। आखिर ये कौन लोग हैं? मुझसे क्या चाहते हैं? क्या ये कोई सरकारी एजेंट हैं? अगर ऐसा है, तो मुझे ऐसे गैर कानूनी तरीके से अपहरण करके क्यों लाते? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी उनमें से एक बोला:

मैं सीधे मुद्दे पर आता हूँ। तुम शायद यही सोच रही होगी कि तुम यहाँ क्यों हो? और हम कौन हैं? यह भी कि हम तुमसे क्या चाहते हैं? हम कौन हैं, यह जानना तुम्हारे लिए ज़रूरी नहीं है। लेकिन यह ज़रूर तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण है कि हम तुमसे क्या चाहते हैं। हम जानते हैं कि तुम मिरेकल रिसर्च इंस्टिट्यूट में बतौर वायरोलोजिस्ट काम करती हो। और यह भी कि तुम्हारा काम मूलतः इस बात का इलाज ढूंढ़ना है कि कोशिका में अनचाहा ग्रोथ क्यों होता है। कैसे एक स्वस्थ कोशिका एक जहरीले ट्यूमर का रूप ले लेती है। इन शॉर्ट, तुम कैंसर और ऑटो-इम्यून बीमारियों के इलाज की राह ढूंढ़ रही हो। लेकिन हमारे लिए जो ज़रूरी है वह ये कि अभी संसार में जो महामारी फैली है, तुम उसका इलाज ढूंढ़ने वाली टीम की हेड भी हो। हम यह भी जानते हैं कि तुम इस गुत्थी को सुलझाने के बहुत करीब हो, शायद आने वाले कुछ दिनों में तुम इसे हल भी कर लोगी। हम सिर्फ़ इतना चाहते हैं कि तुम अपनी अब तक की रिसर्च और उसका आउटकम हमारे हवाले कर दो। साथ ही, हमें तुम्हारी माँ का दिया हुआ तुम्हारा पुश्तैनी लॉकेट भी चाहिये, जो हमें तुम्हारे शरीर और तुम्हारे फ्लैट में कहीं नहीं मिला।

और मैं ऐसा क्यों करूँ?मैंने पूछा।

क्योंकि अगर तुमने ऐसा नहीं किया, तो इससे तुम्हारे परिवार पर खतरा आएगा। यह देखो।

उसने एक लैपटॉप आगे किया। उसमें दो भाग में विभाजित स्क्रीन दिख रहा था। मैंने गौर से देखा। उसमें मेरा गाँव वाला घर दिख रहा था, जिसके एक कमरे में सरला माँ सो रही थी, दूसरे में मेरा छोटा भाई अनूप। एक नकाबपोश इन्सान उसके पलंग के ठीक सामने खड़ा था। उसके हाथ में बन्दूक थी, जिससे उसने माँ के सिर पर निशाना लगा रखा था। भाई के कमरे में दो लोग थे। दोनों नकाबपोश थे। वे चुपचाप उसकी निगरानी कर रहे थे। यह पहले की रिकार्डेड फूटेज थी, यानि इन्होंने ज़रूर उन्हें बंदी बना रखा होगा।

सरला माँ मेरी असली माँ नहीं है। उसने मुझे बस पाला है। मेरी असली माँ अनुभा कौशल उनकी सहेली थी। एक दिन की बात है, मेरी माँ मुझे लेकर सरला शर्मा के दरवाजे पर प्रकट हुई। सरला शर्मा बहुत दिन बाद घर आई अपनी सहेली को देखकर खुश हुई। उसका सत्कार किया। देर रात तक वे दोनों बचपन की बातें करती रहीं। फिर माँ ने रात-भर उसी घर में रुकने की इच्छा ज़ाहिर की, जिसे सरला शर्मा ने सहर्ष मान लिया। सुबह जब सरला शर्मा चाय देने गई, तो कमरे में उसकी सहेली नहीं थी। सिर्फ़ उसकी बच्ची यानि मैं थी। मेरे पास एक सोने की एक चेन पड़ी थी, जिसमें एम्बर जैसा दिखने वाला एक लॉकेट था। पास ही एक खत था, जिसमें लिखा था कि एक दिन मेरी माँ अपनी बेटी को लेने ज़रूर आएगी। तब तक सरला शर्मा ही उसका पालनपोषण करे। जो नेकलेस वह छोड़कर जा रहीं है, उसे किसी क़ीमत पर मुझसे अलग न किया जाए और जब बेटी बड़ी हो जाए, तो उसे माँ की निशानी और विरासत के तौर पर यह नेकलेस दे दिया जाए। माँ ने मेरे लिए अपनी और मेरे पिता की एक तस्वीर भी छोड़ी थी।

मुझे एकदम समझ नहीं आ रहा था कि इन लोगों को मेरे रिसर्च के बारे में इतना कैसे पता है? और भला बीस हज़ार से भी कम के उस मामूली आभूषण में इनकी इतनी क्या रुचि है ?

लेकिन वह नेकलेस तो अब मेरे पास नहीं है।मैंने कहा

क्या? फिर वह कहाँ है?

मुझे कैसे मालूम होगा! पढ़ाई के अंतिम साल मैंने फीस भरने के लिए उसे एक लोकल लोन शार्क को उन्नीस हज़ार में बेच दिया था।

किसे बेचा था? बताओ वरना माँ और भाई की मौत की जिम्मेदार तुम होगी!

दामोदर नगर के चौराहे के पास वाली जूलरी शॉप में बेचा था। तुम मुझसे उसके बदले पैसे ले लो। लेकिन मेरे परिवार को कुछ नहीं करना।

तुम समझती हो, हम तुम्हें यहाँ पैसे के लिए लाये हैं, मुग्धा। तुम्हारी रिसर्च और तुम्हारी माँ का पेंडेंट हमारे लिए दोनों चीजें बहुत ज़रूरी है, और हमें दोनों चाहिए। हमारे पास अधिक समय नहीं है। जब तक दोनों चीजें हमें मिल नहीं जातीं, तुम हमारी मेहमान रहोगी, और उन्हें हासिल करने में हमारी मदद करोगी।

और अगर उसने वह पेंडेंट किसी और को बेच दिया हो तब? क्या तुम मुझे मार डालोगे?मैंने पूछा।

हम धरती के अंतिम आदमी से भी वह लॉकेट हासिल कर लेंगे। इसकी चिंता तुम मत करो। बस हमसे झूठ बोलने की कोशिश मत करना!

मैं समझ नहीं पा रही उस मामूली से लॉकेट के लिए तुम इतने बेचैन क्यों हो? और तुम मेरी माँ को कैसे जानते हो?

मेरे मन में सवालों की सुनामी आई हुई थी। मैं सबके जवाब चाहती थी।

 


वनिका - अध्याय -3

 

रात जैसी एक रात

लेकिन उससे पहले मैं यह बताती हूँ कि मैं यहाँ कैसे पहुँची। अचानक ही एक दिन मैंने पाया कि मैं एक रेगिस्तान में फटे चीथड़ों में चली जा रही थी। मेरे पैर में चप्पल नहीं है। रेत में जलकर मेरे पाँव पूरी तरह जामुनीकाले पड़ गए हैं। मुझे प्यास लगी है।

कोई है? मैं जोर से आवाज देती हूँ।

कोई जवाब नहीं आता। मैं थक कर वहीं रेत पर धम्म-से बैठ जाती हूँ।

थोड़ी देर बैठे रहने के बाद मैं फिर हिम्मत करके उठती हूँ। आगे बढ़ती हूँ। कुछ कंटीली झाड़ियों के अलावा दूरदूर तक किसी जीवित चीज़ का निशान नहीं दिखता। मेरे सर पर तेज़ चमकता लगभग चीत्कार करता सूरज आग बरसा रहा है। मेरे गले में इतनी प्यास है कि लगता है, यह प्यास, दांत और जीभ सहित मुझे अन्दर खींच कर, मुझे मेरे ही पेट में पटक देगी। मेरा सर चकरा रहा है। पाँव टेढ़ेमेढ़े पड़ रहे हैं। हर क़दम के साथ मैं बालू की तरफ़ थोड़ा और झुकती जा रही हूँ। अब गिरी कि तब गिरी।

धड़ाम!!

मैं रेत और गरमी से और नहीं लड़ सकती। अब मेरा आधा शरीर बालू में धंसा है। आधा चेहरा भी बालू में धंसा है। बालू से स्पर्श पाकर मेरा शरीर जल रहा है। मैं मर रही हूँ। या फिर मैं अग्नि की शय्या में सो रही हूँ। आग धीरे-धीरे मुझे जला रही है, मैं धीरेधीरे अन्दर धंस रही हूँ। यह शय्या मुझे खा रही है। रेत के कण आग के असंख्य नुकीले दांत हैं। मैं इनमें इतना फंस चुकी हूँ कि बाहर निकल नहीं सकती। मैं दर्द और जलन से बिलबिला रही हूँ, लेकिन रेगिस्तान ने बिलबिलाने की ताकत भी मेरी देह से छीन ली है। मेरी आत्मा चीत्कार करना चाहती है, लेकिन देह ने समर्पण कर दिया है। मैं आधी बेहोशी, आधी जाग के बीच हूँ। निस्सहाय। तभी अचानक मुझे महामृत्युन्जय मन्त्र सुनाई देता है। मेरी आंखें खुलती हैं। यहाँ कोई रेगिस्तान नहीं है। यह एक सपना है, जो मैं पिछले कई साल से लगातार देखती आ रही हूँ। जो मन्त्र मुझे सुनाई दिया, वह मेरे ही फोन की रिंगटोन थी। लेकिन मेरा फोन कहाँ है? मैं कहाँ हूँ? यह कौन सी जगह है?

स्वप्न से मेरी आँखें खुलीं, तो सर में भारीपन और तेज़ दर्द महसूस हुआ। मैंने सर उठाया और सामने की तरफ़ देखा। आगे अंधकार था। मेरी नज़र धुंधलीधुंधली सी आगे के अंधकार को टटोलने की कोशिश करने लगी। मैं एक कमरे में हूँ। सामने की दीवार पर अलमारी बनी है। उस पर एक जलती लालटेन रखी है। उसकी रोशनी में मैंने देखा कि वहाँ एक छोटी टेबल और लोहे की एक कुर्सी रखी थी। लोहे का एक दरवाज़ा था, जो बंद था। और कुछ भी नहीं था। मैंने हाथ से अपना सर छूना चाहा। लेकिन मेरे हाथ बंधे थे। मैंने अपने पैर देखे, वे भी बंधे थे। मैं छटपटाई। मैंने हाथ-पैर रस्सी से निकालने की कोशिश की। इससे मेरी कलाई और पिंडलियों में बने खरोचों के निशान पर रस्सी से रगड़ खाने की वजह से दर्द शुरू हो गया। मैंने दर्द से हारकर यह कोशिश बंद कर दी।

बाहर चल रही हवा की सांयसांय अन्दर कमरे में भी गूंज रही थी। अन्दर ठंड थी। मैंने आज ऑफिस के लिए घर से निकलते समय, आसमानी पेंसिल स्कर्ट पहनी थी। मेरी खुली जख्मी टांगों को दरवाजे की दरारों से छनकर आती हवा छूती, तो लगता, जैसे किसी ने जख्म पर गोयठा रगड़ दिया है। उन पर लगा खून अपने थक्के बना चुका था। ज़ख्म गहरे नहीं थे। बस ऊपरी चमड़ी छिली हुई थी। मेरे हाथों, पैरों और कपड़े में थोड़ा-बहुत सूखा कीचड़ लगा था।

कमरे में कहीं से किसी जानवर की सड़ी हुई लाश की तेज़ गंध आ रही थी। मुझे जोर की उबकाई आने लगी। डर वैसे भी मेरे अन्दर एक अजीब उबकाई वाली स्थिति पैदा कर देता है। यहाँ तो इतनी गंध थी कि कोई और वक्त होता, तो भी मैं उल्टी कर देती। अभी तो मुझे ऐसा महसूस हो रहा था, जैसे मेरे पेट में एक बड़ा-सा ब्लैकहोल है। मैं कितनी भी उलटी करूंगी, यह बाहर नहीं आएगा। इस डरावनी जगह की सारी मनहूसियत, डरावनापन और अंधकार जैसे मेरे पेट में अन्दर घुसे ब्लैकहोल में समाता जा रहा है। मैंने इधरउधर देखने की कोशिश की। मुझे कोई इन्सान नहीं दिखा। यह एक बड़े कमरे जैसी जगह थी। इतनी बड़ी नहीं कि इसे हॉल कहा जाए, इतनी छोटी भी नहीं कि इसे कमरा मान लिया जाए।

भय, दर्द और घबराहट में उबकाई नियंत्रित करते हुए मैंने याद करने की कोशिश की कि मैं आखिर यहाँ कैसे पंहुची। जैसा कि मैंने आपको पहले बताया, मैं मुग्धा शर्मा, अंतरराष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त वायरोलाजिस्ट हूँ। इस समय पूरी दुनिया एक संक्रामक महामारी के खतरे से लड़ रही है, जिसका इलाज किसी के पास नहीं है। यह वायरस, रेस्पीरेशन सिस्टम को निशाना बनाता है। इसके संपर्क में आने के दो दिन बाद लोग सांस फूलने और बुखार की वजह से मर जाते हैं। यह महामारी कुछकुछ इक्कीसवीं सदी के उन्नीसवें साल में फैले कोविड की महामारी की तरह ही है। अंतर बस इतना है, उसमें करीबकरीब सत्तानबे-अट्ठानबे प्रतिशत लोग इन्फेक्ट होने के बाद भी बच जाते थे, जबकि इस महामारी में बचने वालों का प्रतिशत उससे बहुत कम है। पूरी दुनिया के चिकित्सक और जीव विज्ञानी इसका हल ढूंढ़ना चाहते हैं, लेकिन कोई भी अब तक इसका हल ढूँढ़ने के करीब नहीं पहुंचा है। जहाँ तक मेरी बात है, वह कुछ अलग है। मुझे मेरे सपने में भी इस वायरस के संभावित वैक्सीन ही नज़र आते हैं। मैंने इस पहेली को हल करने के लिए साल भर से दिन-रात का कोई पहर नहीं देखा। मैं पागलों की तरह काम करती थी। सिर्फ़ खाने और सोने के लिए घर जाती थी। घर जाकर भी मैं पांचछः घंटे से अधिक नहीं सो पाती थी। किडनैपिंग की रात जब मैं नौवें माले के टॉप फ्लोर में बनी अपनी लैब से निकली, तब रात के साढ़े बारह बज रहे थे। देर रात का समय था, इसलिए सब लोग घर जा चुके थे। सिर्फ़ ऑफिस का रात का चौकीदार गोरखा रौशन ही इस समय ड्यूटी पर होता है। मैं कैब बुक करके बाहर आई। मैंने देखा कि वह अपनी कुर्सी पर नहीं था। हालाँकि उसकी कुरसी के पास थोड़ी रोशनी दिखाई दे रही थी। शायद वाशरूम गया होगा। मैंने एक बार चारों तरफ़ देखा। घोर अँधेरे में वह ज़रा-सी रोशनी वाली जगह ऐसी दिख रही थी, जैसे अन्धकार के समन्दर में उजाले की छोटी कश्ती। युक्लिप्टस के पत्ते और डालियाँ हिलतीं, तो रोशनी का दायरा भी हिलता। अंधकार आगे बढ़कर रोशनी की नैय्या डूबो देना चाहता था। मैं तेज़ चल रही थी। मुझे अपनी ऊबर कैब के लिए इस रिसर्च इं‍न्स्‍टिट्‌यूट के बाहर वाली रोड तक जाना था। मोबाइल एप में कैब आने में बस एक मिनट का समय दिखा रहा था।

अधिकतर यह होता था कि रौशन मुझे देखते ही उठ खड़ा होता और मुझे बाहर वाली सड़क तक छोड़कर आता। वह अक्सर कहता था कि मुझे अब अपने लिए कार ले लेनी चाहिए, लेकिन मैं लगातार काम की वजह से इस खरीद को टालती जा रही थी, जिसका मुझे अभी अफ़सोस हो रहा है। दूर से सड़क एकदम ख़ाली दिख रही थी। मेन गेट पार करके जैसे ही मैं कम्पाउंड के पार बाहरी सड़क पर आई, किसी ने मेरे मुँह पर कपड़ा रखकर मेरे मुँहनाक को जोर-से दबाया। इसके बाद मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। फिर आगे मुझे कुछ याद नहीं है।

मेरे सर में अब भी बहुत दर्द था। लेकिन मैंने खुद को संयत किया। डर पर काबू पाने की कोशिश करने के बाद मैं अपने चारों ओर के वातावरण को ध्यान से देखकर समझने की कोशिश करने लगी। कई बार आँखें खोलने और बंद करने के बाद जब मैंने आँखों को सिकोड़ कर देखा तो टेबल पर मुझे मेरा पर्स पड़ा दिखाई दिया। उसमें मेरा मोबाइल भी होगा, जो थोड़ी देर पहले एक बार बजा था। अगर मैं किसी तरह उस तक पहुँच जाऊं, तो शायद मदद के लिए किसी को बुला सकूं, किसी को कोई मैसेज या कॉल कर सकूं। मैंने कुर्सी हिलाने की कोशिश की, लेकिन वह एक खंभे से बंधी हुई थी। थोड़ी-बहुत खड़-खड़ की आवाज के अलावा मेरी कोशिशों का कोई परिणाम नहीं निकला।

इतने में कमरे में मौजूद एकमात्र दरवाजे के पार कुछ हलचल हुई और कुछ आवाजें सुनाई दीं। मैंने कुर्सी और शरीर हिलाना बंद कर दिया। शायद ये मेरे किडनैपर होंगे। मुझे नहीं मालूम, ये लोग कौन हैं और मुझे यहाँ क्यों लेकर आए हैं। लेकिन अगर इन्हें मुझे मारना होता या मेरा बलात्कार करना होता, तो अब तक कर चुके होते। मेरे कपड़े सही-सलामत हैं और शरीर में मामूली खरोचों के अलावा कोई और दर्द नहीं है। मतलब इन्हें मुझसे कुछ और चाहिए। लेकिन क्या? मेरे घर वालों से फिरौती? या फिर ये ह्युमन ट्रैफिकिंग से जुड़ा कोई रैकेट है? मैंने आँखें बंद करके बेहोश होने का अभिनय किया, जिससे जब वे अन्दर आएं, मैं उनकी बातें सुन सकूं। मुझे दरवाज़ा खुलने की आवाज आई और फिर कुछ लोग अन्दर आए। मैं सिर एक तरफ़ लुढ़काए, केशों के बीच अपना चेहरा गाड़कर अचेत होने जैसी मुद्रा बना, चौकन्नी होकर, सुनने की कोशिश करने लगी। मेरे चेहरे पर अचानक तेज़ रोशनी आई। पता नहीं, उन्होंने रोशनी के लिए क्या इस्तेमाल किया था, जिसकी वज़ह से यह बहुत तेज़ रोशनी पैदा हुई थी। मेरी आँखें बंद थी, लेकिन फिर भी बंद आँखों को यह असह्य-सी प्रतीत हो रही थी।

मुझे पता है, तुम होश में हो मिस मुग्धा, यहाँ चारों तरफ़ कैमरे लगे हैं। हमें दिखाई दिया कि तुम होश में आई थी। और फिर हमें अन्दर आता जानकर तुमने यह नाटक किया। इसलिए हमसे बात करो। इसमें ही तुम्हारी भलाई है!

मैंने कोई जवाब नहीं दिया। वैसे ही एक्टिंग करती रही। कौन है यह आदमी? इसे मेरा नाम पता है! आखिर ये मुझसे क्या चाहता है?