Friday, December 23, 2022

वनिका - अध्याय -3

 

रात जैसी एक रात

लेकिन उससे पहले मैं यह बताती हूँ कि मैं यहाँ कैसे पहुँची। अचानक ही एक दिन मैंने पाया कि मैं एक रेगिस्तान में फटे चीथड़ों में चली जा रही थी। मेरे पैर में चप्पल नहीं है। रेत में जलकर मेरे पाँव पूरी तरह जामुनीकाले पड़ गए हैं। मुझे प्यास लगी है।

कोई है? मैं जोर से आवाज देती हूँ।

कोई जवाब नहीं आता। मैं थक कर वहीं रेत पर धम्म-से बैठ जाती हूँ।

थोड़ी देर बैठे रहने के बाद मैं फिर हिम्मत करके उठती हूँ। आगे बढ़ती हूँ। कुछ कंटीली झाड़ियों के अलावा दूरदूर तक किसी जीवित चीज़ का निशान नहीं दिखता। मेरे सर पर तेज़ चमकता लगभग चीत्कार करता सूरज आग बरसा रहा है। मेरे गले में इतनी प्यास है कि लगता है, यह प्यास, दांत और जीभ सहित मुझे अन्दर खींच कर, मुझे मेरे ही पेट में पटक देगी। मेरा सर चकरा रहा है। पाँव टेढ़ेमेढ़े पड़ रहे हैं। हर क़दम के साथ मैं बालू की तरफ़ थोड़ा और झुकती जा रही हूँ। अब गिरी कि तब गिरी।

धड़ाम!!

मैं रेत और गरमी से और नहीं लड़ सकती। अब मेरा आधा शरीर बालू में धंसा है। आधा चेहरा भी बालू में धंसा है। बालू से स्पर्श पाकर मेरा शरीर जल रहा है। मैं मर रही हूँ। या फिर मैं अग्नि की शय्या में सो रही हूँ। आग धीरे-धीरे मुझे जला रही है, मैं धीरेधीरे अन्दर धंस रही हूँ। यह शय्या मुझे खा रही है। रेत के कण आग के असंख्य नुकीले दांत हैं। मैं इनमें इतना फंस चुकी हूँ कि बाहर निकल नहीं सकती। मैं दर्द और जलन से बिलबिला रही हूँ, लेकिन रेगिस्तान ने बिलबिलाने की ताकत भी मेरी देह से छीन ली है। मेरी आत्मा चीत्कार करना चाहती है, लेकिन देह ने समर्पण कर दिया है। मैं आधी बेहोशी, आधी जाग के बीच हूँ। निस्सहाय। तभी अचानक मुझे महामृत्युन्जय मन्त्र सुनाई देता है। मेरी आंखें खुलती हैं। यहाँ कोई रेगिस्तान नहीं है। यह एक सपना है, जो मैं पिछले कई साल से लगातार देखती आ रही हूँ। जो मन्त्र मुझे सुनाई दिया, वह मेरे ही फोन की रिंगटोन थी। लेकिन मेरा फोन कहाँ है? मैं कहाँ हूँ? यह कौन सी जगह है?

स्वप्न से मेरी आँखें खुलीं, तो सर में भारीपन और तेज़ दर्द महसूस हुआ। मैंने सर उठाया और सामने की तरफ़ देखा। आगे अंधकार था। मेरी नज़र धुंधलीधुंधली सी आगे के अंधकार को टटोलने की कोशिश करने लगी। मैं एक कमरे में हूँ। सामने की दीवार पर अलमारी बनी है। उस पर एक जलती लालटेन रखी है। उसकी रोशनी में मैंने देखा कि वहाँ एक छोटी टेबल और लोहे की एक कुर्सी रखी थी। लोहे का एक दरवाज़ा था, जो बंद था। और कुछ भी नहीं था। मैंने हाथ से अपना सर छूना चाहा। लेकिन मेरे हाथ बंधे थे। मैंने अपने पैर देखे, वे भी बंधे थे। मैं छटपटाई। मैंने हाथ-पैर रस्सी से निकालने की कोशिश की। इससे मेरी कलाई और पिंडलियों में बने खरोचों के निशान पर रस्सी से रगड़ खाने की वजह से दर्द शुरू हो गया। मैंने दर्द से हारकर यह कोशिश बंद कर दी।

बाहर चल रही हवा की सांयसांय अन्दर कमरे में भी गूंज रही थी। अन्दर ठंड थी। मैंने आज ऑफिस के लिए घर से निकलते समय, आसमानी पेंसिल स्कर्ट पहनी थी। मेरी खुली जख्मी टांगों को दरवाजे की दरारों से छनकर आती हवा छूती, तो लगता, जैसे किसी ने जख्म पर गोयठा रगड़ दिया है। उन पर लगा खून अपने थक्के बना चुका था। ज़ख्म गहरे नहीं थे। बस ऊपरी चमड़ी छिली हुई थी। मेरे हाथों, पैरों और कपड़े में थोड़ा-बहुत सूखा कीचड़ लगा था।

कमरे में कहीं से किसी जानवर की सड़ी हुई लाश की तेज़ गंध आ रही थी। मुझे जोर की उबकाई आने लगी। डर वैसे भी मेरे अन्दर एक अजीब उबकाई वाली स्थिति पैदा कर देता है। यहाँ तो इतनी गंध थी कि कोई और वक्त होता, तो भी मैं उल्टी कर देती। अभी तो मुझे ऐसा महसूस हो रहा था, जैसे मेरे पेट में एक बड़ा-सा ब्लैकहोल है। मैं कितनी भी उलटी करूंगी, यह बाहर नहीं आएगा। इस डरावनी जगह की सारी मनहूसियत, डरावनापन और अंधकार जैसे मेरे पेट में अन्दर घुसे ब्लैकहोल में समाता जा रहा है। मैंने इधरउधर देखने की कोशिश की। मुझे कोई इन्सान नहीं दिखा। यह एक बड़े कमरे जैसी जगह थी। इतनी बड़ी नहीं कि इसे हॉल कहा जाए, इतनी छोटी भी नहीं कि इसे कमरा मान लिया जाए।

भय, दर्द और घबराहट में उबकाई नियंत्रित करते हुए मैंने याद करने की कोशिश की कि मैं आखिर यहाँ कैसे पंहुची। जैसा कि मैंने आपको पहले बताया, मैं मुग्धा शर्मा, अंतरराष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त वायरोलाजिस्ट हूँ। इस समय पूरी दुनिया एक संक्रामक महामारी के खतरे से लड़ रही है, जिसका इलाज किसी के पास नहीं है। यह वायरस, रेस्पीरेशन सिस्टम को निशाना बनाता है। इसके संपर्क में आने के दो दिन बाद लोग सांस फूलने और बुखार की वजह से मर जाते हैं। यह महामारी कुछकुछ इक्कीसवीं सदी के उन्नीसवें साल में फैले कोविड की महामारी की तरह ही है। अंतर बस इतना है, उसमें करीबकरीब सत्तानबे-अट्ठानबे प्रतिशत लोग इन्फेक्ट होने के बाद भी बच जाते थे, जबकि इस महामारी में बचने वालों का प्रतिशत उससे बहुत कम है। पूरी दुनिया के चिकित्सक और जीव विज्ञानी इसका हल ढूंढ़ना चाहते हैं, लेकिन कोई भी अब तक इसका हल ढूँढ़ने के करीब नहीं पहुंचा है। जहाँ तक मेरी बात है, वह कुछ अलग है। मुझे मेरे सपने में भी इस वायरस के संभावित वैक्सीन ही नज़र आते हैं। मैंने इस पहेली को हल करने के लिए साल भर से दिन-रात का कोई पहर नहीं देखा। मैं पागलों की तरह काम करती थी। सिर्फ़ खाने और सोने के लिए घर जाती थी। घर जाकर भी मैं पांचछः घंटे से अधिक नहीं सो पाती थी। किडनैपिंग की रात जब मैं नौवें माले के टॉप फ्लोर में बनी अपनी लैब से निकली, तब रात के साढ़े बारह बज रहे थे। देर रात का समय था, इसलिए सब लोग घर जा चुके थे। सिर्फ़ ऑफिस का रात का चौकीदार गोरखा रौशन ही इस समय ड्यूटी पर होता है। मैं कैब बुक करके बाहर आई। मैंने देखा कि वह अपनी कुर्सी पर नहीं था। हालाँकि उसकी कुरसी के पास थोड़ी रोशनी दिखाई दे रही थी। शायद वाशरूम गया होगा। मैंने एक बार चारों तरफ़ देखा। घोर अँधेरे में वह ज़रा-सी रोशनी वाली जगह ऐसी दिख रही थी, जैसे अन्धकार के समन्दर में उजाले की छोटी कश्ती। युक्लिप्टस के पत्ते और डालियाँ हिलतीं, तो रोशनी का दायरा भी हिलता। अंधकार आगे बढ़कर रोशनी की नैय्या डूबो देना चाहता था। मैं तेज़ चल रही थी। मुझे अपनी ऊबर कैब के लिए इस रिसर्च इं‍न्स्‍टिट्‌यूट के बाहर वाली रोड तक जाना था। मोबाइल एप में कैब आने में बस एक मिनट का समय दिखा रहा था।

अधिकतर यह होता था कि रौशन मुझे देखते ही उठ खड़ा होता और मुझे बाहर वाली सड़क तक छोड़कर आता। वह अक्सर कहता था कि मुझे अब अपने लिए कार ले लेनी चाहिए, लेकिन मैं लगातार काम की वजह से इस खरीद को टालती जा रही थी, जिसका मुझे अभी अफ़सोस हो रहा है। दूर से सड़क एकदम ख़ाली दिख रही थी। मेन गेट पार करके जैसे ही मैं कम्पाउंड के पार बाहरी सड़क पर आई, किसी ने मेरे मुँह पर कपड़ा रखकर मेरे मुँहनाक को जोर-से दबाया। इसके बाद मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। फिर आगे मुझे कुछ याद नहीं है।

मेरे सर में अब भी बहुत दर्द था। लेकिन मैंने खुद को संयत किया। डर पर काबू पाने की कोशिश करने के बाद मैं अपने चारों ओर के वातावरण को ध्यान से देखकर समझने की कोशिश करने लगी। कई बार आँखें खोलने और बंद करने के बाद जब मैंने आँखों को सिकोड़ कर देखा तो टेबल पर मुझे मेरा पर्स पड़ा दिखाई दिया। उसमें मेरा मोबाइल भी होगा, जो थोड़ी देर पहले एक बार बजा था। अगर मैं किसी तरह उस तक पहुँच जाऊं, तो शायद मदद के लिए किसी को बुला सकूं, किसी को कोई मैसेज या कॉल कर सकूं। मैंने कुर्सी हिलाने की कोशिश की, लेकिन वह एक खंभे से बंधी हुई थी। थोड़ी-बहुत खड़-खड़ की आवाज के अलावा मेरी कोशिशों का कोई परिणाम नहीं निकला।

इतने में कमरे में मौजूद एकमात्र दरवाजे के पार कुछ हलचल हुई और कुछ आवाजें सुनाई दीं। मैंने कुर्सी और शरीर हिलाना बंद कर दिया। शायद ये मेरे किडनैपर होंगे। मुझे नहीं मालूम, ये लोग कौन हैं और मुझे यहाँ क्यों लेकर आए हैं। लेकिन अगर इन्हें मुझे मारना होता या मेरा बलात्कार करना होता, तो अब तक कर चुके होते। मेरे कपड़े सही-सलामत हैं और शरीर में मामूली खरोचों के अलावा कोई और दर्द नहीं है। मतलब इन्हें मुझसे कुछ और चाहिए। लेकिन क्या? मेरे घर वालों से फिरौती? या फिर ये ह्युमन ट्रैफिकिंग से जुड़ा कोई रैकेट है? मैंने आँखें बंद करके बेहोश होने का अभिनय किया, जिससे जब वे अन्दर आएं, मैं उनकी बातें सुन सकूं। मुझे दरवाज़ा खुलने की आवाज आई और फिर कुछ लोग अन्दर आए। मैं सिर एक तरफ़ लुढ़काए, केशों के बीच अपना चेहरा गाड़कर अचेत होने जैसी मुद्रा बना, चौकन्नी होकर, सुनने की कोशिश करने लगी। मेरे चेहरे पर अचानक तेज़ रोशनी आई। पता नहीं, उन्होंने रोशनी के लिए क्या इस्तेमाल किया था, जिसकी वज़ह से यह बहुत तेज़ रोशनी पैदा हुई थी। मेरी आँखें बंद थी, लेकिन फिर भी बंद आँखों को यह असह्य-सी प्रतीत हो रही थी।

मुझे पता है, तुम होश में हो मिस मुग्धा, यहाँ चारों तरफ़ कैमरे लगे हैं। हमें दिखाई दिया कि तुम होश में आई थी। और फिर हमें अन्दर आता जानकर तुमने यह नाटक किया। इसलिए हमसे बात करो। इसमें ही तुम्हारी भलाई है!

मैंने कोई जवाब नहीं दिया। वैसे ही एक्टिंग करती रही। कौन है यह आदमी? इसे मेरा नाम पता है! आखिर ये मुझसे क्या चाहता है?

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