परछाइयों की दौड़
मैंने कोई जवाब नहीं दिया। वैसे ही एक्टिंग करती रही। आँखें नहीं खोली।अचानक मेरे शरीर से कई लीटर बर्फीला पानी टकराया। लगा, जैसे किसी ने मेरी पूरी देह को बर्फ के चिलचिलाते कुंड में डाल दिया हो। मुझे इसकी बिलकुल उम्मीद नहीं थी। मैं थोडा चौंकी। फिर भी मैंने बेहोश होने का नाटक जारी रखा। मेरे केशों ने मेरा चेहरा ढंक रखा था। मैंने अपने आप को एकदम स्थिर किये रखा। ज़रा भी नहीं हिली। उनकी तरफ़ से कोई आवाज नहीं आई। शायद वे लोग इशारे में बातें कर रहे थे।
“अगर तुम आँखें नहीं खोलोगी, तो मजबूरन हमें तुमको पैर में गोली मारनी पड़ेगी! शायद इससे तुम अपना यह नाटक बंद कर दो!”
फिर से वही आवाज आई। मैंने कोई हरकत नहीं की। इतने में गोली चलने की आवाज आई। लगा, मेरे दाहिने कान के पास किसी ने झन्नाटेदार बम फोड़ दिया हो। उनमें से किसी ने शायद मुझे डराने के लिए मेरे कान के पास से रिवाल्वर फायर किया था। मैं डर और आवाज की तीव्रता से चीख पड़ी।
“अब ठीक है!” उसी आवाज ने कहा।
“कम से कम अब हम बात कर सकते हैं!”
मैंने आँखें खोल दी थी। सामने देखा, रोशनी इस तरह से की गई थी कि मैं सिर्फ़ सामने मौजूद लोगों की आदमकद छायारेखा ही देख पा रही थी। जैसे किसी ने उन्हें कार्डबोर्ड के पुतले-सा काट कर रोशनी के आगे खड़ा कर दिया हो। उनका चेहरा, वेशभूषा, कुछ भी साफ़ नहीं दिख रहा था। वे आठ-दस लोग थे। जिसमें से एक, उसी कुरसी पर बैठा हुआ था, जिसे मैंने थोड़ी देर पहले टेबल के पास रखे देखा था। बाकी सात उसके दोनों ओर हाथ बांधे बॉडीगार्ड्स की तरह खड़े थे। वे सब काले सूट और काले जूते पहने थे। उनके कानों में सीक्रेट एजेंट्स की तरह माइक्रोफोन के घुंघराले तार लगे दिख रहे थे। मैंने जोर डालकर देखने की कोशिश की कि क्या उन्होंने काले चश्मे भी पहने हैं। शायद अभी रात के समय यह ज़रूरी नहीं था। मुझे चश्मे नहीं दिखे। वैसे भी मैं उनकी आँखें देख नहीं पा रही थी, तो यह कोशिश गैर ज़रूरी थी। ऐसे लोग चश्मे पहनते ही इसलिए हैं कि लोग उनकी आँखों की मूवमेंट्स न देख सकें। लोग यह न जान पाएं कि वे कहाँ देख रहे हैं। उनका पहनावा एकदम फिल्मों में दिखने वाले हाई प्रोफाइल सिक्युरिटी एजेंट्स जैसा था। आखिर ये कौन लोग हैं? मुझसे क्या चाहते हैं? क्या ये कोई सरकारी एजेंट हैं? अगर ऐसा है, तो मुझे ऐसे गैर कानूनी तरीके से अपहरण करके क्यों लाते? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी उनमें से एक बोला:
“मैं सीधे मुद्दे पर आता हूँ। तुम शायद यही सोच रही होगी कि तुम यहाँ क्यों हो? और हम कौन हैं? यह भी कि हम तुमसे क्या चाहते हैं? हम कौन हैं, यह जानना तुम्हारे लिए ज़रूरी नहीं है। लेकिन यह ज़रूर तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण है कि हम तुमसे क्या चाहते हैं। हम जानते हैं कि तुम मिरेकल रिसर्च इंस्टिट्यूट में बतौर वायरोलोजिस्ट काम करती हो। और यह भी कि तुम्हारा काम मूलतः इस बात का इलाज ढूंढ़ना है कि कोशिका में अनचाहा ग्रोथ क्यों होता है। कैसे एक स्वस्थ कोशिका एक जहरीले ट्यूमर का रूप ले लेती है। इन शॉर्ट, तुम कैंसर और ऑटो-इम्यून बीमारियों के इलाज की राह ढूंढ़ रही हो। लेकिन हमारे लिए जो ज़रूरी है वह ये कि अभी संसार में जो महामारी फैली है, तुम उसका इलाज ढूंढ़ने वाली टीम की हेड भी हो। हम यह भी जानते हैं कि तुम इस गुत्थी को सुलझाने के बहुत करीब हो, शायद आने वाले कुछ दिनों में तुम इसे हल भी कर लोगी। हम सिर्फ़ इतना चाहते हैं कि तुम अपनी अब तक की रिसर्च और उसका आउटकम हमारे हवाले कर दो। साथ ही, हमें तुम्हारी माँ का दिया हुआ तुम्हारा पुश्तैनी लॉकेट भी चाहिये, जो हमें तुम्हारे शरीर और तुम्हारे फ्लैट में कहीं नहीं मिला।”
“और मैं ऐसा क्यों करूँ?”मैंने पूछा।
“क्योंकि अगर तुमने ऐसा नहीं किया, तो इससे तुम्हारे परिवार पर खतरा आएगा। यह देखो।”
उसने एक लैपटॉप आगे किया। उसमें दो भाग में विभाजित स्क्रीन दिख रहा था। मैंने गौर से देखा। उसमें मेरा गाँव वाला घर दिख रहा था, जिसके एक कमरे में सरला माँ सो रही थी, दूसरे में मेरा छोटा भाई अनूप। एक नकाबपोश इन्सान उसके पलंग के ठीक सामने खड़ा था। उसके हाथ में बन्दूक थी, जिससे उसने माँ के सिर पर निशाना लगा रखा था। भाई के कमरे में दो लोग थे। दोनों नकाबपोश थे। वे चुपचाप उसकी निगरानी कर रहे थे। यह पहले की रिकार्डेड फूटेज थी, यानि इन्होंने ज़रूर उन्हें बंदी बना रखा होगा।
सरला माँ मेरी असली माँ नहीं है। उसने मुझे बस पाला है। मेरी असली माँ अनुभा कौशल उनकी सहेली थी। एक दिन की बात है, मेरी माँ मुझे लेकर सरला शर्मा के दरवाजे पर प्रकट हुई। सरला शर्मा बहुत दिन बाद घर आई अपनी सहेली को देखकर खुश हुई। उसका सत्कार किया। देर रात तक वे दोनों बचपन की बातें करती रहीं। फिर माँ ने रात-भर उसी घर में रुकने की इच्छा ज़ाहिर की, जिसे सरला शर्मा ने सहर्ष मान लिया। सुबह जब सरला शर्मा चाय देने गई, तो कमरे में उसकी सहेली नहीं थी। सिर्फ़ उसकी बच्ची यानि मैं थी। मेरे पास एक सोने की एक चेन पड़ी थी, जिसमें एम्बर जैसा दिखने वाला एक लॉकेट था। पास ही एक खत था, जिसमें लिखा था कि एक दिन मेरी माँ अपनी बेटी को लेने ज़रूर आएगी। तब तक सरला शर्मा ही उसका पालन–पोषण करे। जो नेकलेस वह छोड़कर जा रहीं है, उसे किसी क़ीमत पर मुझसे अलग न किया जाए और जब बेटी बड़ी हो जाए, तो उसे माँ की निशानी और विरासत के तौर पर यह नेकलेस दे दिया जाए। माँ ने मेरे लिए अपनी और मेरे पिता की एक तस्वीर भी छोड़ी थी।
मुझे एकदम समझ नहीं आ रहा था कि इन लोगों को मेरे रिसर्च के बारे में इतना कैसे पता है? और भला बीस हज़ार से भी कम के उस मामूली आभूषण में इनकी इतनी क्या रुचि है ?
“लेकिन वह नेकलेस तो अब मेरे पास नहीं है।” मैंने कहा
“क्या? फिर वह कहाँ है?”
“मुझे कैसे मालूम होगा! पढ़ाई के अंतिम साल मैंने फीस भरने के लिए उसे एक लोकल लोन शार्क को उन्नीस हज़ार में बेच दिया था।”
“किसे बेचा था? बताओ वरना माँ और भाई की मौत की जिम्मेदार तुम होगी!”
“दामोदर नगर के चौराहे के पास वाली जूलरी शॉप में बेचा था। तुम मुझसे उसके बदले पैसे ले लो। लेकिन मेरे परिवार को कुछ नहीं करना।”
“तुम समझती हो, हम तुम्हें यहाँ पैसे के लिए लाये हैं, मुग्धा। तुम्हारी रिसर्च और तुम्हारी माँ का पेंडेंट हमारे लिए दोनों चीजें बहुत ज़रूरी है, और हमें दोनों चाहिए। हमारे पास अधिक समय नहीं है। जब तक दोनों चीजें हमें मिल नहीं जातीं, तुम हमारी मेहमान रहोगी, और उन्हें हासिल करने में हमारी मदद करोगी।”
“और अगर उसने वह पेंडेंट किसी और को बेच दिया हो तब? क्या तुम मुझे मार डालोगे?” मैंने पूछा।
“हम धरती के अंतिम आदमी से भी वह लॉकेट हासिल कर लेंगे। इसकी चिंता तुम मत करो। बस हमसे झूठ बोलने की कोशिश मत करना!”
“मैं समझ नहीं पा रही उस मामूली से लॉकेट के लिए तुम इतने बेचैन क्यों हो? और तुम मेरी माँ को कैसे जानते हो?”
मेरे मन में सवालों की सुनामी आई हुई थी। मैं सबके जवाब चाहती थी।
No comments:
Post a Comment