Monday, March 7, 2016

लम्बी कविता - "प्रेम पर फुटकर नोट्स "

नंदना सेन (साभार - गूगल )
जिन्हें यात्राओं से प्रेम होता है
वे यात्री की तरह कम
फ़क़ीरों की तरह अधिक यात्रा करते हैं
जिन्हें स्त्रियों से प्रेम होता है
वे उनसे पुरुषों की तरह कम 
 स्त्रियों की तरह अधिक प्रेम करते हैं
प्रेम के रंगीन ग़लीचे की बुनावट में
अनिवार्य रूप से उघड़ना पैवस्त होता है
जैसे जन्म लेने के दिन से हम चुपचाप
मरने की ओर क़दम दर क़दम बढ़ते रहते हैं
वैसे ही अपनी दोपहरी चकाचौंध खोकर
धीरे - धीरे हर प्रेम सरकता रहता है
समाप्ति की गोधूलि की तरफ
टूटना नियति है प्रेम की
और यह तो बिलकुल हो ही नही सकता
कि जिसने टूट कर प्रेम किया हो
वह अंततः न टूटा हो

प्रेम में लिए गए कुछ चिल्लर अवकाश
मदद करते हैं प्रेम टूट जाने से बचाने में
वह जो प्रेम में आपका ख़ुदा है
अगर अनमना होकर छुट्टी मांगे
तो यह समझना चाहिए
कि प्रेम के टूटने के दिन नज़दीक़ हैं
पर टूटना मुल्तवी की जाने की कोशिशें ज़ारी है

प्रेम आपको तोड़ता है
आपके रहस्य उजागर करने के लिए
बच्चा माटी के गुल्लक को यह जानकर भी तोड़ता है
कि उसके अंदर चंद सिक्कों के अलावा कुछ भी नहीं  
यह तुम्हारे लिए तो कोई रहस्य भी नही था
कि मेरे अंदर कविताओं के अलावा कुछ भी नहीं 
फिर भी तुमने मुझे तोडा
*हम दोनों ही खानाबदोश घुम्मकड़ों के
 उस नियम को मानते थे
 कि चलना बंद कर देने से
 आसमान में टंगा सूरज नीचे गिर जाता है
 और मनुष्य का अस्तित्व मिट जाता है
आजकल लोग कोयले की खदानों में
ज़हरीली गैस जाँचने के लिए
इस्तेमाल होने वाले परिंदे की तरह
पिंजड़े में लेकर घूमते हैं प्रेम
ज़रा सा बढ़ा माहौल में ज़हर का असर
और परिंदे की लाश वहीं छोड़कर
आदमी हवा हो जाता है

कुछ लोगों में ग़ज़ब हुनर होता है
पल भर में कई साल झुठला देते हैं
फिर अनकहे की गाठें लगती रहती है
साल दर साल रिश्तों में और एक दिन
गाठें ही ले लेती है साथ की माला में
प्रेम के मनकों की जगह


प्रेम कभी पालतू कुत्ता नही हो पाता
जो समझ सके
आपका खीझकर चिल्लाना
आपका पुचकारना
आपका कोई भी आदेश
वह निरीह हिरन सी
पनैली आँखों वाला बनैला जीव है
आप उस पर चिल्लायेंगे
वह निरीहता से आपकी ओर ताकेगा
आप उसे समझदार समझ कर समझायेंगे
वह बैठ कर कान खुजायेगा
अंत में तंग आकर आप
उसे अपनी मौत मरने के लिए छोड़ जाएंगे

जब भी सर्दियाँ आती हैं मेरी इच्छा होती है
मैं सफ़ेद ध्रुवीय भालू में बदल जाऊँ
ऐसे सोऊँ की नामुराद सर्दियों के
ख़त्म होने पर ही मेरी नींद खुले
जब भी प्रेम दस्तक देता है द्वार पर
मुझे लगता मेरे कान बहरे हो जाएँ
कि सुन ही न सकूँ मैं इसके पक्ष में
दी जाने वाली कोई दलील
जो खूबसूरत शब्द
हमसे बदला लेना चाहते हैं
वे हमारे छूट गए  पिछले प्रेमियों के
नाम बन जाते हैं

बाढ़ का पानी कोरी ज़मीं को डुबो कर 
लौट जाता है
धरती की देह पर फिर भी 
छूट जाते हैं तरलता के छोटे गह्वर
दुःख के कारणों का आपस में
कोई सम्बन्ध नही होता
बस एक - सा पानी होता है
जो सहोदरपने के नियम निबाहता
झिलमिलाता रहता है
उम्रभर दुःखों के सब गह्वरों में

भय कई तरह के होते हैं
लेकिन आदमियों में
कमजोर पड़ जाने का भय
सबसे बलवान होता है
अंकुरित हो सकने वाले 
सेहतमंद बीज को प्रकृति
कड़े से कड़े खोल में छिपाती है
बीज को सींच कर 
अपना हुनर बताया जा सकता है
उसपर हथौड़ा मारकर 
अपनी बेवकूफी साबित कर सकते हैं
यों भी तमाम बेवकूफियों को 
ताक़त मानकर खुश होना 
इन दिनों चलन में है

रोना चाहिए अपने प्रेम के अवसान पर
जैसे हम किसी सम्बन्धी की मौत पर रोते है
वरना मन में जमा पानीज़हरीला हो जाता है
फिर वहां जो भी उतरता है उसकी मौत हो जाती है
त्यक्त गहरे कुऐं में उतर रहे मजदूर की तरह
तुम्हारी याद भी अजीब शै है
 जब भी आती है
कविता की शक़्ल में आती है

तुम किसी क्षण मरुस्थल थे. रेत का मरुस्थल नही. वह तो आंधियों की आवाजाही से आबाद भी रहता है. उसमे रेत पर फिसलता सा अक्सर दिख जाता है जीवन. तुम शीत  का मरुस्थल थे जिसमे नीरवता का राग दिवस - रात्रि गूंजता था. तुमसे मिलने से पहले मैं समझती थी कि सिर्फ बारिश से भींगी और सींची गई धरती पर उगे घनघोर जंगल में ही कविता अपना मकान बनाना पसंद करती है, सिर्फ वहीं  कविता अपनी आत्मा का सुख पाती है.  तुमसे मिलकर मैंने जाना बर्फ के मरुस्थलों में भी निरंतर आकार  लेता है सजीव लोक. शमशान सी फैली बर्फीली घाटियाँ भी कविता के लिए एकदम से अनुपयोगी नही होती. जीवन होता  है वहां भी कफ़न सी सफ़ेद बर्फ़ानी चादर के अंदर सिकुड़ा और ठिठुरता हुआ. कुलबुलाते रंग - बिरंगे कीट - पतंगे न सही लेकिन सतह पर जमी बर्फ की पारभाषी परत के नीचे तरल में गुनगुनापन होड़ करता है जम जाने की निष्क्रियता के ख़िलाफ़. मछलियों के कोलाहल वहां भी भव्यता से मौजूद रहते हैं. 

जिसे बस चुटकी भर दुःख मिला हो
वह उस ज़रा से दुःख को
तम्बाकू की तरह
लुत्फ़ बढ़ाने के लिए 
बार - बार फेंटता - मसलता है
जिसने असहनीय दुःख झेला हो
वह टुकड़े भर सुख की स्मृतियों से
अनंत शताब्दियों तक हो रही
दुःख की बरसात रोकता है
उस गरीब औरत की तरह
जो जीवन भर शादी में मिली
चंद पोशाकों से हर त्यौहार में
अपनी ग़रीबी छिपाती है
संतोष से अपना शौक़ श्रृंगार
पूरा कर लेती है

सब कहाँ हो पाते हैं छायादार पेड़ों के भी साथी
कुछ उनकी छाल चीर कर उनमे डब्बे फंसा देते हैं
जिसमे वे पेड़ों का रक्त जमा करते हैं
दुनिया में दुःख के तमाशाई ही नही होते
यहाँ पीड़ा के कुछ सौदागर भी होते हैं

मैं प्रेम की राह पर
 सन्यासियों की तरह चलती हूँ
जीवन की राह पर
मृत्यु द्वारा न्योते गए
 मेहमान की तरह

जिन गुफाओं में संग्रहित पानी तक
कभी रौशनी नहीं पहुचती
वहाँ की मछलियों की आँखें नहीं होती
खूबसूरत जगहों में पैदा होने वाले
कवि न भी हो पाएं तब भी वे
कविता से प्रेम कर बैठते हैं
और अगर वे कवि हो ही जाएँ
तो दुनिया के सब बिंब
उनकी कविता में
जंगल के चेहरों पर आने वाले
अलग – अलग भावों के
अनुवाद में बदल जाते हैं

सोचती हूँ
तुम्हारे मन के तल में बने 
गह्वरों में जमा 
काँच से पानी के वहां रखे 
नकार के पत्थरों में
क्या जमती होगी
स्मृतियों की 
कोई हरी काई

मन के झिलमिलाते 
नमकीन सोते में
हरापन कैसे कैद होगा
आखिर किस चोर दरवाजे से
आती होगी वहां
सूरज की ताज़ी रौशनी
जिसमे छलकती
झिलमिलाती होंगी
दबी इच्छाओं की चंचल मछलियाँ
बियाबान में टपकती बूंदों की लय
क्या कोई संगीत बुन पाती होगी

नाज़ुक छुअन की सब स्मृतियाँ
तरलता के चोर दरवाजे हैं
बीता प्रेम अगर तोड़ भी जाए
तब भी उसकी झंकार 
दूर तक पीछा करती है
पुकारते और लुभाते हुए
जैसे आप रस्ते पर आगे बढ़ जाएँ 
तब भी इस आशा में 
कि शायद आप लौट ही पड़ें
सड़क पर दुकान लगाये दुकानदार
आपको आवाज देते रहते हैं

धरती पर पड़ी शुष्क पपड़ी जैसे
मुलायम होते हैं
मन के निषेध - पत्र
कोई हल्के नोक से चोट करे
तो पपड़ी टूट कर मिल ही जाती है
अंकुर बोने जितनी नमी की गुंजाईश

अगली बार झिलमिलाते जल के लिए
कोई यात्री आपके पाषाण अवरोधों का ध्वंस करे
तो यह मानना भी बुरा नहीं
कि कुछ चोटें अच्छी भी होती है
सूरज रौशनी के तेज़ सरकंडों से अँधेरे काटता है
बादलों की लबालब थैली भी आखिर 
गर्म हवा का स्पर्श पाकर ही फटती है 
जो सभ्यताएँ मुरझा जाती हैं
उन्हें आँख मटकाते बंजारे सरगर्मियाँ बख़्शते है
जंगलों की हरीतिमाअनावरण के 
संकट के बावजूद किसी चित्रकार की राह देखती है 
पत्थरों के अंदर बीज नही होते
लेकिन अगर वे बारिश में भींग गए हों
और वहां रोज धूप की जलन नही पहुंच रही हो
तब वहां भी उग ही आती है
काई की हरीतिमा
***

(# यह अमेज़ान के आदिवासियों की मान्यता है.)


यह लम्बी कविता मैंने कई टुकड़ों में लगभग डेढ़ साल के समय में लिखी है। इस ब्लॉग से पहले यह "समालोचन" में आई थी, वहां लेखिका मित्र सुशीला पुरी ने एक लम्बी व्याख्यात्मक टिप्पणी लिखी, जो इस कविता के अर्थ को पूरी तरह साफ़ करती है. मुझे ऐसा महसूस हुआ कि वह टिप्पणी पाठकों के लिए यहाँ लगाई जानी चाहिए.
 - लवली गोस्वामी. 
सुशीला पुरी

" पृथ्वी पर इतने तरह के अन्याय और शोषण हैं कि प्रेम जैसे कोमल अनछुए एहसास के लिए जगह बना पाना असंभव तो नहीं कठिन जरुर है। प्रेम के लिए जूझते वक्त, हम हमारी पृथ्वी, ग्रह, नक्षत्रों और जीवन में जो अद्भुत गतिमयता, क्रमबद्धता, लयात्मकता, संतुलन और सुन्दरता है, उससे ही जूझते हैं, कहीं न कहीं हम इनमें संतुलन के वास्ते ही संघर्षरत होते हैं, इसी संघर्ष का एक नाम प्रेम है ! प्रेम के बिना यह पृथ्वी, यह जीवन असंतुलित और अराजक ही होता होगा, ऐसा मेरा मानना है। जीवन और प्रेम का प्रकृति से यह अंतर्संबंध विज्ञान का विषय हो सकता है किन्तु कविता विज्ञान न होकर कला है और कलाएं अपने सौन्दर्य अपनी एन्द्रिकता में हरबार अद्भुत होती हैं। कलाओं के बिना जाने कैसी होती यह पृथ्वी.... मैं तो कला या कविता के बिना इस जीवन या इस पृथ्वी की कल्पना भी नहीं कर सकती ! जिस तरह पृथ्वी, आकाश, सूरज, चाँद, हवा, पानी अपनी अपनी एन्द्रिकता और अपनी अपनी भूमिका से यह जीवन रचते हैं उसी तरह कोई कला या कविता भी अपनी उपस्थिति से इस जीवन को सुन्दरतम बनाती है। प्रेम जैसे अप्रतिम विषय पर आज के अराजक वक्त में कुछ लिख पाना घनघोर जीवटता और दुर्लभ मनुष्यता का प्रमाण है, लवली गोस्वामी को हार्दिक बधाई इस कविता को बरत पाने के लिए। प्रेम अपनी उपस्थिति में आरम्भ से अंत तक एक संघर्ष ही है जहाँ हम अपने होने या न होने की भीषण खोज में भटकते हैं, जूझते हैं अपने भीतर के उन सुनामियों से जो बिना बताये अचानक दाखिल होती हैं और सब कुछ तहस नहस हो जाता है कुछ और होने के लिए। प्रेम याचना नहीं, उसे मांगकर पा लेना असंभव है, प्रेम किया नहीं जाता, प्रेम हो जाता है और इस होने में निमिष मात्र भी लग सकता है सदियाँ भी लग सकती हैं। प्रेम अपने होने और न होने के बीच बहुत आदिम, अबूझ जंगलों से गुजरता है जहाँ अनगिन पखेरू अपनी अपनी भाषा में प्रेम की परिभाषाएं गढ़ते मिलते हैं पर जैसे ही हम उन्हें छूने को लपकते हैं वे फुर्र...! कई बार उस सघन वन में जो नदी मिलती है वो चुपचाप यूँ बहती मिलती है जैसे चुपके से कोई रो रहा हो बेआवाज। नदी के भीतर पानी, पानी के भीतर मछलियाँ, मछलियों के भीतर बसता है प्रेम ! पानी से निकलते ही मछलियों का प्राणांत निश्चित। प्रेम अपनी प्रकृति में इतना कोमल इतना पवित्र है कि उससे होकर गुजरने वाला संगीत के स्वरों को ओढ़े उसकी धुन में मगन अपने आपको ही भुला बैठता है, ये सच है कि प्रेम की छुअन झंकार की तरह हमारी आत्मा में बजती है, हम थिरकते हैं अपने बियावानों में अकेले ही। हाँ, प्रेम की अवस्थिति में जरुर एक स्त्री-पुरुष या परस्पर दो लोग होते हैं पर प्रेम करने या उसमें थिरकने में हरबार हम अकेले हो होते हैं, चुटकी भर सुख में घड़ा भर दुःख मिलाते-फेंटते ताउम्र हम उसकी परिभाषाओं में उलझे उसकी विस्मयकारी भूमिका में खुद को फिट करते रहते हैं और जीवन बीत जाता है। प्रेम की परिणति न कभी हुई है न होगी, हाँ प्रेम अपने होने या न होने के वक्त बहुत कम होकर भी बहुत ज्यादा की तरह खिलता है और हम चकित होते हैं, हँसते हैं, रोते हैं, प्रेम से चिल्लर अवकाश कहाँ मिलता है ? प्रेम वह अनवरत यात्रा है जहाँ हम फ़कीरों की तरह अपनी आत्मा की पोरों से बजाते रहते हैं जिन्दगी का गिटार. " - सुशीला पुरी ( टिप्पणी समालोचन से साभार ).

- लवली गोस्वामी.

- लवली गोस्वामी

No comments:

Post a Comment