Sunday, December 17, 2017

मील का पत्थर है रात.



झींगुरों की लय पर जुगनू तारों की तरह टिमटिमाते हैं
मन मरे परिंदे के मानिंद टहनियों के कुचक्र में फंसा है

बेहद कोमल क्षणों की आवाजें धरोहर होती हैं
ध्वनियाँ स्वाद पैदा करती हैं कई बार.

भुलायी गयी सब कहानियाँ एक रात
झुण्ड बनाकर ओस से केश धोने निकलती है

छूना भी कभी- कभी सहा नहीं जाता
नवजात शिशु के केशों सा कोमल है प्रेम

देह की अलगनी से गीले कपडे की तरह
अस्थि-आँते फिसल कर गिर गए

इन्द्रधनुष के लच्छे भरे हैं अंतड़ियों की जगह
अस्थियों की जगह गीतों की सुनहरी पंक्तियाँ रखी हैं.

कलियाँ पौधों की बंद मुठ्ठियाँ हैं
रौशनी नहीं मानती, वह रोज़ आती है

एक दिन कलियाँ बंद मुठ्ठी खोलकर
रौशनी से हाथ मिलाती है.

आँधियों के बाद टूटी टहनियों में
दिवंगत चिड़ियों की फड़फड़ाहटे भरीं होती हैं
सुन लिया जाना, आवाजों की मृत्यु नहीं है

चकाचौंध से डरी मैं तुम्हे हर जगह ढूंढती हूँ
मन जानता है सिर्फ झिलमिलाता पानी ही पैदा कर सकता है
चमचमाती रौशनी में सिलवटें.

Tuesday, November 28, 2017

रस गंध स्वाद और आंच का कोरस है प्रेम.


सधे हाथों से उम्र की तंदूर में
मेरा कच्चा प्रेम सेंकते हो तुम.

भोजन की इच्छा में तुम्हारे पास ही बैठी मैं
तुम्हे अपलक निहारती हूँ


तमाम रात तुम बिखरी लौ बीनते हो
तुम्हारी ओट पाकर कभी कोई छाया खड़ी नहीं होती

रस गंध स्वाद और आंच का कोरस है प्रेम
यह तुमसे मिलने से पहले मैंने नहीं जाना था

चाँद गहरे चषक में तुम्हारे बाजू पड़ा
 सफ़ेद खुम्बियों का शोरबा है

यह प्रेम है, जो कभी मुझे अतृप्त सोने नहीं देता
यह प्रेम है कि धीमी आंच का सोंधापन
कभी मुझसे छिनता नहीं है

कैरी और फल का भेद जानना
तुम्हारी रसोई की रहस्यमयी कला है

चटकारों से लेकर तृप्तियों तक मेरा हर स्वाद
तुम्हारी ही उँगलियों में पला है.

( दैनिक जागरण "पुनर्नवा " २७ नवंबर में प्रकाशित )

Sunday, November 26, 2017

मुक्तिबोध की कविता "अँधेरे में ..." पर टिप्पणी.



पहले मैं मुक्तिबोध की कविता “अँधेरे में” से अलग फोटोग्राफी पर कुछ तकनिकी बातें कहूँगी. जिससे मुझे इस कविता को समझने में मदद मिली है. 

दो हज़ार ग्यारह में रौन फ्रीक की एक नान नैरेटिव डाक्यूमेंट्री फिल्म रिलीज हुयी थी. फिल्म का नाम था “संसारा” अर्थात संसार. फ्रीक नान नैरेशन के बड़े उस्ताद माने जाते हैं. अब तक वे नान नैरेटिव स्टाइल में विश्व को कई प्रसिद्द फिल्मे दे चुके हैं. संसारा भी उनकी एक महत्वकांक्षी सीरिज का हिस्सा है. इस फिल्म की खास बात यह है कि इसमें टाइम लेप्स तकनीक का इस्तेमाल किया गया है. यह तकनीक दर्शक के देखने के लिहाज से फोटोग्राफी और वीडियो के बीच की कड़ी होती है. जिसमे कि फोटो फ्रेम्स की गति को साधारण से कम स्पीड में चला कर रिकार्ड किया जाता है, और फिर उसे विडिओ में ढाला जाता है. 

यह एक तरह से वीडियो के रूप में असंख्य तस्वीरों की बारिश होती है. तस्वीरों की इस बौछार का मूल सूत्र समय होता है. एक फ्रेम के भीतर आने वाली तस्वीरों की संख्या यह निर्धारित करती है कि आपका वीडियो कितना तेज़ या धीमा चलेगा. यह समय को अपने अनुरूप चलाने का छायाचित्रकार का तकनिकी कौशल है. इसमें दो – तीन सेकेंड्स के अन्दर आप सूरज को उगता और रिवर्स में फ्रेम्स चला कर सूरज को डूबता दिखा सकते है. पंद्रह दिन में खिली कली को क्षणों में खिलता दिखा सकते हैं. खिले फूल को वापस फ्रेम्स उल्टा चला कर कली बनता भी दिखा सकते हैं. यह फोटोग्राफर की समय की गति पर प्रतीकात्मक रूप से जीत है. कला की काल की सतत गति पर विजय है. जैसा कि हम जानते ही हैं, कला या साहित्य के हर फार्म में कलाकार या लेखक की सबसे बड़ी चुनौती अलग – अलग समयों में उसके मन में आये ख्यालों, बिम्बों को कला के शिल्प या फार्म में ढालने की होती है. 

कविता में भी अलग समय में मन में आये बिम्बों और विचारो का अर्थपरक समायोजन ही कवि की सबसे बड़ी समस्या है. उसे यह देखना पड़ता है कि वह किस चित्र या विचार को कविता में कहाँ रखे. यह समायोजन सचेतन या अवचेतनिक दोनों अवस्थाओं में हो सकता है. यह कहना न होगा कि सतर्क और अर्थपूर्ण संयोजन ही किसी कविता को कालजयी बनाता है. चित्रों का ऐसा ही एक सफल अरेंजमेंट मुक्तिबोध अपनी लम्बी कविता “अँधेरे में ” में करते हैं. 

टाइम लेप्स तकनीक का यह विवरण मैंने “समय की गति” से कलाकार द्वारा संरक्षित चित्रों के संबंध को परिभाषित करने के लिए दिया है. जब कलाकार फोटोग्राफर होता है तो वह सिर्फ दो दिशाओं में गति करते हुए चित्रों को अरेंज कर पाता है. जब इन्ही समयों के सापेक्ष आब्जर्वर कोई कवि होता है तो कविता एक शक्तिशाली माध्यम की तरह उसे मुक्त रूप से किसी भी दिशा में बहने की आज़ादी देती है. आप चाहें तो कई बिम्बों को एक बिम्ब में कोलाज की तरह भी रख सकते हैं. कई परिभाषाओं को एक वाक्य में चित्र की तरह भी इस्तेमाल कर सकते हैं. मैंने कई महान कवियों को बहुधा इस तकनीक का इस्तेमाल करते देखा है. 

यह तो हुयी देखे गए चित्रों को अर्थपूर्ण गति देने और किसी कला के स्पेसिफिक शिल्प में ढालने की बात. दूसरी बात होती है इंडीविजुअल चित्र के अस्तित्व की बात. इसे समझने के लिए हम फिर छायाचित्रों की दुनिया में वापस लौटते हैं. 

यहाँ मुझे रोलां बार्थ याद आते हैं. बार्थ ने एक बार फोटोग्राफी पर विचार करते हुए लिखा था कि फोटोग्राफी का दर्शन बौद्ध धर्म के क्षणवाद की तरह है. उनका कहना था कि “तथता” अर्थात “हेयर इट इज ” हिंदी में “यह” की एक भावना हर चित्र के साथ जुडी होती है. चित्र उस एक क्षण का प्रतिनिधित्व करता है जिस क्षण में वह खींचा गया है. ज़ाहिर है कि वह क्षण फिर लौट कर नहीं आएगा. चित्र, उस क्षण को और उसमे उपस्थित दृश्य के, अन्तर्निहित सन्देश को स्वयं में गूंथ कर रखता है. यह तात्कालिकता की चरम परकाष्ठा है. फिर वही बात ठीक उसी तरह कभी घटित नहीं होती आप दृध्य दोहराने की कोशिश करें तब भी नहीं. फोटो समय के अन्तर्निहित सत्व या सन्देश को पकड़ने की फोटोग्राफर की तकनीक है. समय की अभिव्यक्ति या उसके सन्देश को यहाँ “संरक्षित” किया जा रहा है. कला में समय को वैसे बांधा जा रहा है, जैसा की वह वास्तव में है, और फिर कभी वैसा ही नहीं होगा. यह फोटोग्राफी का दर्शन है. 

इस कांसेप्ट को कविता में ले जाएँ तो यह कविता में गूंथे हुए इंडिविजुअल बिम्ब का दर्शन भी हैं. उस अकेले बिम्ब का जो कविता के बहाव में अन्य चित्रों के साथ है, लेकिन उसका स्वयं का एक अलग अर्थ – अस्तित्व भी है. मुझे मुक्तिबोध की कविता “अँधेरे में” भी ऐसी ही एक कलाकृति लगती है जिसमे अंधरे के व्यापक साम्राज्य को रेफर करने वाले चित्रों की बौछार है. एक संयत और योजनाबद्ध बौछार. जिसमे काल की गति के मध्य कवि के मन में संरक्षित चित्रों की एक सार्थक चित्रमाला है. साथ ही साथ इस संयत बौछार में उपस्थित प्रत्येक चित्र का एक उदेश्य है, और वह उद्देश्य अपने समय में उपस्थित अँधेरे की पहचान करना है. इस एक लम्बी कविता में उपस्थित हर चित्र का काम कविता के शीर्षक को रेफर करना है, बहुत साफ़ कहूँ तो “अँधेरे में.. “ घटित हो रहे जीवन के अर्थ को रेफर करना है. अपनी पूरी अभिधा और लक्षणा  के साथ. लक्षणा इसलिए कि कविता अपने समय का प्रतिनिधित्व करने के साथ – साथ काल को पछाड़ती हुयी एक बृहद मानव प्रवृति और सामाजिक नियति का भी प्रतिनिधित्व करती है, जो अक्सर काल से अप्रभावित रहता है.
यह कविता टाइम – लैप्स टेक्निक और फोटोग्राफी के दर्शन को खुद में बहुत सुन्दर ढंग से समाहित करती है. यह किसी कवि द्वारा रचित चित्रों के लिखित उपयोग की महागाथा है. 

इस कविता में कवि अपने दैदीप्यमान अल्टर ईगो का परिचय आपसे कराता है और उससे संवाद करता है. यह संवाद आपको समाज और अवचेतन में उपस्थित ऐसे अनेक धूसर गलियारों तक ले जाता है, जहाँ पहुचने का सामर्थ्य किसी मामूली कविता के बस में कभी नहीं होता. यही धूसर चित्रात्मक सघनता इस कविता को उत्कृष्ट कलाकृति बनाती है. इस कविता में चित्र हैं, लेकिन ये सिर्फ चित्र नहीं हैं. प्रत्येक चित्र का अपना सन्दर्भ है वह किसी गहनतम बात की तरफ इंगित करता है. जैसा की बार्थ ने कहा था यह खुद में अपने अस्तिगत सन्देश को इंगित करता है. मुक्तिबोध के ही स्वरों में कहूँ तो यह “धूल के कणों में अनहद नाद का कम्पन है”. एक व्यक्ति जो कवि है, के स्वर में समाज के अंतिम मनुष्य की पीड़ा की कथा है. कई धूसर भावों की सजातीयता से बद्ध मामूली विवरण से लग रहे ये चित्र अपने अन्दर अपना सन्देश गढ़ते हैं.ये चित्र खुद में समेकित समाज सन्देश  साधारण मनुष्य की नियति को भी पूरे बल से इंगित करते हैं. वास्तविकता के निर्मम चित्रण के बावजूद यह कविता कला की, समय पर, एक तरह से जय का दस्तावेज है. यह पीडाओं  के निर्मम सार्वजनीकरण को आमंत्रित करता, आशा का उत्सव है. और इन सब से परे यह कविता एक समर्थ कवि कि सचेतन काव्य – योजना का उत्कृष्ट नमूना है. यह कविता कवि द्वारा कहीं – कहीं बेहद एहतियात से आरोपित किये गए वर्तमान के सपाट चित्रण के बावजूद भय, असुरक्षा, दुःख, असंतोष और आशा का अद्वितीय जटिल पहेलीनुमा कोलाज़ है, और अपने पूर्ण स्वरुप में उस पहेली का हल भी है.

मुक्ति बोध ने इस कविता के समाप्त होने के लगभग बाद एक निबंध में लिखा था कि आज मैंने एक लम्बी कविता खत्म की और उसका अंत मुझे कमज़ोर लगा. मुझे लगता है निबंध में यह बात  शायद इसी कविता के लिए लिखी गयी होगा. इस निबंध में वे कविता को प्रभावशाली ढंग से खत्म न कर पाने की अपनी मुश्किलों के बारे में भी लिखते हैं.

मुक्तिबोध शायद इस कविता के अंत को लेकर संतुष्ट नहीं थे. लेकिन जब मैं इसे पढ़ती हूँ तब अक्सर मुझे इस कविता का अंत फूल सजाने की जापानी कला इकेबाना की याद दिलाता है. जिसमे कि फूलों के गुलदस्ते को एक निश्चित तरीके से इस तरह सजाया जाता है कि वह देखने वाले से जीवित अस्तित्व की तरह मुखातिब हो और आँखों को एक अर्थ – सौन्दर्य तक भी ले जा सके. वह एक ऐसा सौन्दर्य निर्मित करे जिसमे एक सन्देश भी हो, और एक अध्यात्म भी. इस वजह से शुरुआत में  आधार पर, उसे सघन रखा जाता है और उर्ध्वाधर अंत की तरफ वह विरल होती जाती है. कहना न जिस अंत से मुक्तिबोध संतुष्ट न हो सके उस अंत ने इस कविता को अधिक ग्राह्य और सुन्दर ही बनाया है. अस्तित्ववाद और जनवाद के तमाम द्वंद्व के बाद और बावजूद इस कविता के इस पक्ष को देखना मेरे लिए एक निजी सुख भी है.  

-(रज़ा फाउन्डेशन के कार्यक्रम युवा - २०१७ में मुक्तिबोध की कविता "अँधेरे में .." पर दिए गए वक्तव्य में इसके कुछ हिस्से शामिल किये गए थे. )

Monday, October 9, 2017

पक्ष

 मेरे साथ परछाइयों की एक फौज चलती है
जिससे उजाले में रहने वाले भाग्यशाली लोग असहज होते हैं
जिन्हें खुश रहने से अलग कुछ पसंद नहीं  है
वे मुझसे पूरी शिद्दत से नफ़रत करते है

मैं सुखान्त कहानियों के उत्सवों में
शोक की अनंतिम गाथाओं के प्लॉट लिए घूमती हूँ
लोगों की चमकीली नज़रें मुझपर पड़ते ही
छायाओं के वश में आकर चितकोबरी हो जाती हैं

मैं दूध में गिरा नमक हूँ
सुवासित भात खाते वक़्त दांतों के बीच आया कंकर हूँ

सबसे कमज़ोर कराह सुनने के लिए मैंने
बीच महफ़िल पुरजोर झनकती वीणा के तार पकड़े 
मैं सुरों की अपराधी मानी गयी

मैंने पाप के रंग को चुटकियों में मसलकर देखा
बहुमूल्य पुण्य की गठरियाँ पानी में बहा दी
मैं पुण्य और उपयोगिता की एक बराबर हँसी उड़ाती हूँ

साथी कवियों की तरह
मैंने कभी कविता के भविष्य की चिंता नहीं की
मुझे पता है कविता रहेगी दुःखों की जर्जर कथरी में
आशा के वफ़ादार पैबंद की तरह
तकलीफों की भीषण झांझ  बरसात में
कमज़ोर लेकिन जी  जान लगाकर खड़ी जर्जर झोपड़ी की तरह

दुनिया में कविता तब तक रहेगी
जब तक दुनिया में दुःख रहेंगे.

Tuesday, September 19, 2017

कुछ कुशाग्र सवालों के बीच.


बीते दिनों में कथाकार - पत्रकार गीताश्री जी  ने मुझसे मेरी कविताओं के विषय में कुछ सवाल किये थे. ये सवाल दैनिक जागरण के एक स्तम्भ के लिए थे, जिनमे उन्हें मेरे काम की समीक्षा लिखनी थी. मुझे लगता है, जवाबों में मैं कई चीजों पर  खुद को कुछ हद तक साफ़ - साफ देख सकी हूँ . इसलिए मैं वे सवाल - जवाब यहाँ ब्लॉग में लगा रही हूँ. आपकी दिलचस्पी हो तो पढ़ सकते हैं. हो सकता है आपको कुछ आनन्द आये. :-) 

1. गीताश्री -    आपकी कविताएँ बहुत लंबी और शिल्प के स्तर पर भी थोड़ी दुरुह , एक्सपेरिमेंटल हैं. क्या जानबूझकर कर या होता चला गया.

लवली गोस्वामी -  पहले मैं लम्बी कविता के बारे में बात करती हूँ. कविताएं बहुत लम्बी हैं, ऐसा सिर्फ तब ही कहा जा सकता है जब आप आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास को अनदेखा करेंगी. मैं छायावाद को छोड़ भी दूं तो नयी कविता में ऐसे अनेक उदाहरण आपके पास हैं, जो आपको मेरी कविताओं से अधिक लम्बी लग सकती हैं. शमशेर की टूटी हुई बिखरी, मुक्तबोध की “अँधेरे में” अज्ञेय की  “चक्रांत शीला, “असाध्य वीणा” आदि. मेरी अब तक लगभग चालीस के लगभग कविताएँ प्रकाशित होंगी जिसमे पाँच या छह वाकई लम्बी कविता कही जा सकती है. मैंने कई कविताएँ लिखी हैं जो पांच या सात लाइन की भी हैं. सबसे छोटी कविता चार लाइन की है. हर कवि में यह मिले – जुले रूप में होता है, कुछ कविताएँ लम्बी  कुछ छोटी होती हैं. जितने में लग जाए कि कोई बात यहाँ तक पूरी हो रही है, मैं उतना ही लिखती हूँ. मेरा ध्यान इस तथ्य पर रहता है कि बात संप्रेषित हुयी कि नहीं कविता कितनी लम्बी है या छोटी इसपर नहीं.
दूसरी बात शिल्प में कुछ प्रयोग मैंने किये हैं, ज़ाहिर है वे सचेतन प्रयोग है. मुझे महसूस हो रहा था कि अब तक की कविता में जो शिल्प मेरे पहले के मेरे बेहद प्रिय कवियों ने प्रयोग किया है वह मेरी बात के लिए अपर्याप्त है, तो जैसे मुझे बात स्पष्ट होती हुयी लगी मैंने उसे वैसे ही रखा. कुछ कविताओं “जैसे प्रेम के फुटकर नोट्स” और “आलाप” के प्रत्येक नए से लगते हिस्से के पहले एक दो या तीन लाइन का पूर्वकथन या फिर अंत में निष्कर्ष के रूप में कही गयी पंक्तियाँ इसी नए शिल्प का हिस्सा है. यह मेरी कोशिश थी मेरा अपना लहजा ढूँढने की, या साहित्यिक भाषा में कहें तो यह मेरी काव्य – योजना थी मेरी सचेतन पोयटिक्स का हिस्सा.
तीसरी बात दुरुहता, मैं समझ नहीं पायी कि आपका इशारा है किस तरफ है, दुरूह भाषा या फिर वाक्यों का काव्यात्मक अर्थ या कविता के शिल्प की दुरुहता यह तीनों अलग बातें हैं. मैंने भाषा वही इस्तेमाल की है जो मैं किसी हिंदी भाषी से बोलते वक्त इस्तेमाल करती हूँ, हालाँकि मैं यह मानती हूँ कि लोगों से बात करते वक्त मैं जटिल हिंदी के शब्दों की जगह उनके अंग्रेजी अनुवाद भी उपयोग कर लेती हूँ, कविता में भी यह कभी – कभी होता है, कभी नहीं. कभी हिंदी के जटिल शब्द वैसे ही रह जाते है. और अर्थ में जो जटिलता दिखती है वह एक तरह से सामने वाले की दिमागी परिपक्वता और उसकी सहृदयता पर भी निर्भर है. कविता पढना सीखना पड़ता है. रस्ते चलते अख़बार पढ़े जा सकते हैं साहित्य नहीं. यह एक प्रकार से पाठक के लिए आग्रह और कसौटी दोनों है, कि आप रुक कर पढ़े अन्यथा न पढ़े. हालाँकि मैं पल्प लिटरेचर या सरल साहित्य कि आलोचक या विरोधी नहीं हूँ. 

2.   गीताश्री -     प्रेम कविताओं में कुछ अनूठे बिंब, टटका -सा, तरल - सा कुछ. प्रेम आपकी कविताओं का मूल स्वर है. आप ख़ुद को किसका कवि मानती हैं? प्रेम या इतर ?
लवली गोस्वामी
लवली गोस्वामी - यह मैंने बहुत लोगों से कई बार सुना है कि “आपकी कविता का मूल स्वर “प्रेम” है”. मैं इससे इंकार नहीं करुँगी. स्त्री पुरुष के संबंध मुझे हमेशा से रोचक विषय लगे. मैंने स्त्री यौनिकता पर राजनितिक – आर्थिक दृष्टी से किताब भी लिखी है. हाल के दिनों में मैंने किसी पत्रिका के एक अंक के लिए एक आत्मकथ्य लिखा था इस विषय पर, (वह अभी प्रकाशित होने में समय है इसलिए मैं नाम नहीं लिख रही ), मैं वही बातें यहाँ दुहरा देती हूँ. मैंने लिखा था प्रेम, दर्शन और राजनीति तीनों ही मेरी कविताओं के प्रस्थान बिंदु हैं. मुझे लगता है प्रेम एक सूत्र है जिसमे आप जीवन के कई आयाम और उससे जुड़े अनुभव संजो सकते हैं.
पुराने ज़माने में जब कवि लिखते थे तो वे ईश्वर से या कला की देवियों (अलग – अलग सभ्यताओं में अपनी परम्परा के अनुसार ) से संवाद करते हुए अपनी कविता लिखते थे. बाद में ऐसा हुआ वे कविताएँ संवाद तो रही लेकिन उसमे कई और कई लोग जुड़ गए, जैसे सम्बन्धी, प्रेमी, गुरु, समाज या खुद कवि का अदर सेल्फ (अल्टर इगो), आदि. फिर भी विराट सत्ता जिसे आप आम भाषा में ईश्वर कह लें और प्रेमी को सम्बंधित कविताएँ अधिक रही. अगर कविता कवि की ध्वनि है तो किसी को संबोधित होगी. जो उसे प्रिय होगा, जो करीब होगा कवि उसे ही संबोधित करेगा, इस हिसाब से  प्रेम एक सूत्र है, जो जीवन भर में मिले कई अनुभव एक धागे में पिरोने में मदद करता है. लेकिन कविताओं में सिर्फ प्रेम नहीं होता  बल्कि समकालीन समाज, राजनीति और दर्शन से जुडी कई बातें होती हैं. मुख्यतः एक अनुभव जो स्वयं जीवन जितना बड़ा है, होता है.

3. गीताश्री  - आपके लिए कविताएँ क्यों जरुरी?  ऐसा लगता है जैसे भीतर से कुछ भरभरा कर निकल रहा हो. बहुत वाचाल हैं कहीं कहीं... ये क्या है ? मुक्ति का मार्ग है या अपने को खोने पाने का साधन ?
गीताश्री
लवली गोस्वामी - मैं नितांत सामाजिक प्राणी हूँ, जैसा कि हर मनुष्य होता है. मैं कई सांस्कृतिक – साहित्यिक संगठनों का अनौपचारिक हिस्सा भी रही हूँ. सांस्कृतिक साहित्यिक रूप से अपने परिवेश में हमेशा सक्रीय रही हूँ. अपने बचपन से मुझे लगता है बोलने के मुकाबले मैं लिख कर अपनी बात अधिक अच्छे से कह पाती हूँ. लिखना मुझे संतोष देता है. यह खुद को ढूंढना तो है ही, समाज में अपनी स्थिति को खोजना, अपनी जिज्ञासाओं और प्रश्नों के हल तलाश करना है. जो लोग मुझे पढ़ सकते हैं , उनसे यह पूछना भी है कि “जीवन को मैंने ऐसा देखा, आपका इस बारे में क्या ख्याल है ?” फिर उनके उत्तर पर सोचना है, फिर लिखना है यह एक निरंतर चलती प्रक्रिया है. जैसा कि मुक्तिबोध कह गए हैं – “मुक्ति है तो सबके साथ है.” भले ही मैं एकांत में साहित्य की साधना करूँ लेकिन वह एक दिन तो लोगों के सामने आएगा ही, इसी लिए लिखते हैं हम. हाँ, यह संवाद खुद से भी होता है, उतना ही, जितना दूसरे लोगों से.
यह साहित्य के हर फार्म में होता है मैं लगभग सात – आठ साल से लिख रही हूँ जिसमे मैंने एक किताब, कई निबंध और कई सारी कविताएँ लिखी है. अभी भी दो अधूरे प्रोजेक्ट में लगी हूँ, जो जाने कब पूरे होंगे. कविताये भी इस व्यापक दृश्य का हिस्सा है. यह विधा संक्षिप्त, सटीक और सुन्दर होने की ताक़त रखती हैं इसलिए विशेष प्रिय है. और कुछ है जो बहुत गहरे कहीं राहत देता है, जो अन्य फार्म कम या नहीं दे पाते, कविता  पीड़ा, क्लेश और अवसाद झेलने की ताकत देती है, फिर वह क्लेश व्यक्तिगत हो या सामाजिक. 
जहाँ तक वाचाल होने का प्रश्न है तो वाचाल कवि का “सेल्फ ” है या कविता मितभाषी नहीं है, यह दोनों अलग बातें हैं. अपनी तरफ से मैं दोनों पर नियत्रण रखने की कोशिश करती हूँ. यह याद रखने वाली बात है कि कवि का “मैं” सिर्फ उसका “मैं ” नहीं होता, उस बहाने से वह दुनिया के बहुत सारे “मैं” का प्रतिनिधित्व भी करता है. वह वाचाल है तो यह भी देखा जाना चाहिए कि कवि के पास शब्दों के अलावा कुछ और नहीं है. वह आपति ज़ाहिर करेगा, क्षमा मांगेगा, अफ़सोस करेगा, प्रतिरोध करेगा, सहमत होगा, प्रशंसा करेगा, राजनीति करेगा या प्रेम करेगा यह सब अभिव्यक्त शब्दों में ही होगा.

4. गीता श्री -     कविता कब आती है, कैसे ? लिख जाने के बाद क्या महसूस होता है ?
लवली गोस्वामी - अलग – अलग तरीके से आती है कविता, कभी किसी से बात करते, कोई वाक्य अचानक जुबान पर आ जाये और लगे कि कविता है, कभी अकेले बैठकर सोचते, कभी घर या बाहर के बहुत मामूली काम करते, बर्तन धोते या बाज़ार से सौदा खरीदते. कभी किसी मीटिंग के बीच. उसी क्षण नोट कर लेती हूँ. फिर उसे कहाँ रखना है या वह किस कविता का हिस्सा है यह बाद में तय करती हूँ. जब नहीं कर पाती तो बाद में याद करने की कोशिश करती हूँ. कई बार याद नहीं भी आती. तब अफ़सोस होता है.
कई बार कविताएँ पूरा होने में बहुत वक्त लेती हैं. “प्रेम पर फुटकर नोट्स” डेढ़ साल में लिखी गयी कविता है. ऐसा नहीं है कि मैं लगातार उसी पर सोच रही थी, बीच में कई लेख, एक किताब आदि लिखे लेकिन  वह खंड – खंड में दिमाग में आती थी. मैंने उसके मुकम्मल स्वरुप में आने का इंतजार किया. पूरा करके ख़ुशी हुयी. अक्सर होती है जैसे कोई भी अच्छा काम करके, अच्छा इटालियन खाना बनाकर, या फिर पेंटिंग करके होता है, किसी की मदद करके भी. मतलब एक तरह की तृप्ति, रचनात्मक तृप्ति.

 5.  गीताश्री -     आप ख़ुद को कविता में कहाँ देखती हैं और कहाँ पाती हैं?
-         लवली गोस्वामी    - यह मुश्किल सवाल है, मूलत मैं एक विद्यार्थी हूँ कविता की. अच्छी और सच्ची कविता की परम्परा में एक तुच्छ अभ्यासी. मैं कविता की पम्परा का बहुत सम्मान करती हूँ. अगर उसमे कुछ सकारात्मक जोड़ पाउंगी तो मुझे अच्छा लगेगा.

6. गीताश्री -  स्मृतियाँ बहुत हावी हैं आपकी कविताओं पर. क्या कविता के लिए स्मृति एक पवित्र और अखंड अवधारणा है जिसके पास बार बार लौट कर जाना पड़ता है
लवली गोस्वामी -    हर किस्म का सहित्य स्मृति पर आधारित होता है. अगर इसी क्षण मैं आपके मन से सब स्मृतियाँ पोछ दूं तो आप कुछ नहीं लिख पाएंगी. यह कोई पवित्र चीज नहीं, एक तरह से साहित्य की आत्मा ही स्मृति है. आप शब्द लिख रही हैं तो उसके पीछे परिभाषा एक स्मृति की तरह है. आप वाक्य बना रही हैं तो उसके गठन के आधार में व्याकरण की स्मृति है. स्मृति साहित्य का व्याकरण है. वह वास्तविक आधार है वह जिस पर आप साहित्य के झालरदार के कंगूरे गढ़ते है. 

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