मुझे लगा धूल के उथले कुएँ में लोटपोट होती
खुद के पंखों से झगड़ती गौरय्या यकायक
पंख झाड़कर कई सारी कविताएँ टपका गई हो
पानी के फटे पाईप से नहाते बच्चों की
नटखट उँगलियों से पानी छनकर फूटता है
नटखट उँगलियों से पानी छनकर फूटता है
पोर -पोर में रीझ भरती पानी की अठखेलियां देखकर मैंने
जाना
कभी - कभी किसी की हँसी
कानों से टकरा कर
देह में अंदर कहीं पानी का सफ़ेद निर्झर बनकर फूटती है
तुम्हारे
बोलने में डोर टूटी माला से
मोती गिरने की लय होती है
मोती गिरने की लय होती है
तालाब में मद्धिम बरिश की
बूंदों के गिरते रहने का संगीत
राहगीरों को रास्ते भूलने पर मजबूर कर देता है
मैं तुम्हारे शब्दों के अर्थ नही देखती
तरलता के वलय बनाते रहने के तुम्हारे हुनर पर मुस्कुराती हूँ
तरलता के वलय बनाते रहने के तुम्हारे हुनर पर मुस्कुराती हूँ
शब्दों को तुम बच्चों की तरह दुलारते हो
तुमसे अलग होकर वे भी अक्सर अनमने हो जाते हैं
मंद स्वर में तुम्हारे आलाप के अलंकार सुनती हुई मैं
अक्सर इस गणित में डूबती - उतरती रहती हूँ
कि पहले तुम्हारे वश में हुई या पहले तुमने मंत्र पढ़े
मेरी ज़रा सी शरारत पर तुमपहले मुझे आँखें दिखाते हो
फिर धीरे से मुस्कुराते हो,पक्के व्यापारी हो
हमेशा थोड़ा दुःख तुम्हारे अंदर रह जाता है
फिर धीरे से मुस्कुराते हो,पक्के व्यापारी हो
हमेशा थोड़ा दुःख तुम्हारे अंदर रह जाता है
हमेशा थोड़ी ख़ुशी तुम अपने पास रख लेते हो
तुम्हारा होना मोटे लोहे की कड़ाही में उबलते गुड सी महक बिखेरता है
मिठास के हलके गुब्बारे फूटने की "फ़क्क" सी आवाज तुम कहते हो "शैतान "
मैं रीत गए प्रेमियों सी मुस्कान लिए जवाब देती हूँ "शैतान के प्रेमी "
तुम्हारी भूरी देह पर सुबह का सुनहलापन मुस्कराहट बनकर छिटकता है
मेरी आँखों की स्याह नदी तुम्हे देखकर रुपहली हो जाती है
गर्वीला गवैया जैसे रियाज़ का हुनर
उभारने के लिए
कोई शब्द अलापते उसपर ठहर
जाता है
लेखक मन के बारीक़ भाव उकेरने
के लिए कोई दृश्य चुन लेता है
स्मृतियों में कहीं खो जाने के लिए तुम ठीक वैसे ही
बोलते - बोलते ठहर कर चुप हो जाते हो
बोलते - बोलते ठहर कर चुप हो जाते हो
तुम्हारी मंद चलती सांसे पढ़ती मैं
तुम्हारे लौट आने की प्रतीक्षा करती हूँ
तुम्हारे लौट आने की प्रतीक्षा करती हूँ
ठंढ की एक शाम तुम्हारे पहले से गर्म
मोटे चादर में औचक हिस्सेदारी करती मैं
पहाड़ों में बेपरवाह भटकते धुंध के झुंड़ से राहत पाती हूँ
मोटे चादर में औचक हिस्सेदारी करती मैं
पहाड़ों में बेपरवाह भटकते धुंध के झुंड़ से राहत पाती हूँ
तुम कई बार माँ बन चुकी अनुभवी बतख की तरह मुझे पंखों में समेटते हो
मैं आँखें मूँदते सोचती जाती हूँ कि इस तरह तुम्हारे पंखों से ढँकी
मैं एक अर्धसृजित अंडा हूँ जिसे सेया जाना अभी बाकी है
हलके बादलों को बरसने से
पहले हवा उड़ा ले जाती है
जिन परिंदों के पंखों में घनापन कम होता है
वह कहाँ नाप पाते हैं आकाश की ऊपरी सतह की परतें
आज जब मैं यह कविता लिख रही हूँतो एक इच्छा है मेरे अंदर
कि एक क्षण के लिएहर प्रेमी घनेपन की उस ज़रूरत को महसूस करे
कि एक क्षण के लिएहर प्रेमी घनेपन की उस ज़रूरत को महसूस करे
जो झबरे पंखों से अंडे के तरल में उतर कर
उसे रक्त - मांस का रूप देती है
उसे रक्त - मांस का रूप देती है
प्रेम में पैबस्त हो जाए मातृत्व की वह रीझ
जो किसी परिंदे को एक समय बाद
आकाश की परतें नापने के लिए आज़ाद छोड़ देती है
जो किसी परिंदे को एक समय बाद
आकाश की परतें नापने के लिए आज़ाद छोड़ देती है
(पाखी मई - २०१६ अंक में प्रकाशित )
** इस कविता का शीर्षक देते समय मेरे मन में देवी प्रसाद मिश्र की कविता "प्रार्थना के शिल्प में नहीं" का ख्याल था। यह शीर्षक उसी से प्रेरित कहा जा सकता है। देवी प्रसाद जी की कविता का यों तो इस कविता की विषयवस्तु से कोई सम्बन्ध नहीं है, लेकिन इस शीर्षक का इस कविता के साथ पढ़ा जाना शायद मेरा मंतव्य अधिक साफ़ कर सकेगा इस उम्मीद से मैंने पहली बार में मन में आया शीर्षक यथावत रहने दिया।
** इस कविता का शीर्षक देते समय मेरे मन में देवी प्रसाद मिश्र की कविता "प्रार्थना के शिल्प में नहीं" का ख्याल था। यह शीर्षक उसी से प्रेरित कहा जा सकता है। देवी प्रसाद जी की कविता का यों तो इस कविता की विषयवस्तु से कोई सम्बन्ध नहीं है, लेकिन इस शीर्षक का इस कविता के साथ पढ़ा जाना शायद मेरा मंतव्य अधिक साफ़ कर सकेगा इस उम्मीद से मैंने पहली बार में मन में आया शीर्षक यथावत रहने दिया।