जिन शब्दों को हम बिना अर्थों की गहराई में गए
यों ही उचारते हैं रहते हैं लापरवाही में रोज़ - ब - रोज़
कभी - कभी उनके मायने इतने चौंकाते हैं
कि शब्दकोश बुरे लगने लगते हैं
कि शब्दकोश बुरे लगने लगते हैं
तब उसपर वैसे ही डंडे बरसाने का मन होता है,
जैसे उन बालकों पर जो अपने भोलेपन में हमारे उलझाव को
इतना टटोलते हैं कि वह अज्ञान निकल आता है
जैसे उन बालकों पर जो अपने भोलेपन में हमारे उलझाव को
इतना टटोलते हैं कि वह अज्ञान निकल आता है
प्रेम में उपसंहार लिखने की इच्छा करना
पानी की सतह पर तैरते सूखे पत्तों पर पैर रखकर
जलाशय पार करने की इच्छा करने जैसा है
जब ज़रा धीमी आवाज में तुम बोलते हो
बातों के अर्थ काँपते कदमों से कानों से भीतर
मन की गीली माटी पर अपने पैरों के निशान छोड़ते हैं
शाम होते ही लाल सूरज पानी में ओट ले लेता है
समुद्र धरती के कंधों के साथ आँचल सा लिपटा दूसरी दिशा में मुड़ता है
रात का अंधकार जब आँखों के सब रंगीन हुनर ढँक लेता है
मैं ज़रा झुककर गीलेपन के शिल्प में रचे अर्थों की आकृतियाँ टटोलती हूँ
वे तुम्हारा अनकहा सब चुपचाप सुना जातीं हैं
प्रार्थना के मन्त्र खुदे तिब्बती धातुचक्रों को छूकर
मैंने जाना स्पर्शों में आवाजें गुँथी होती हैं
मैंने जाना स्पर्शों में आवाजें गुँथी होती हैं
तुम्हारी अनुपस्थिति में मैं तुम्हारे स्पर्शों का
स्याही रचा कागज़ी अनुवाद पढ़ती हूँ
मन ही मन पढने से उसकी आवाज सुनायी देती है
जिसने वे शब्द लिखे हों
बहुत अनमने होते हैं तुम्हारे शब्द
परिंदों के डैने के अंदरुनी रुई से हलके पखों की तरह
मेरी लहकती हंसी के ज़ोर से दूर उड़ जाते हैं
फिर हंसी रुकते ही धीरे - धीरे मेरी तरफ सरकते हैं
उनसे कहना मेरी हंसी आग नहीं है.
(पाखी के मई - २०१६ अंक में प्रकाशित )