Friday, October 14, 2016

अभिप्रेत कथा


पेंटिंग - Sean Yoro.


मैं पानी में तैर सकने वाली एक बड़ी पोत थी एक नाविक मेरा प्रेमी था।  मुझे याद है जब वह मेरे पास पहली बार आया था उत्साह से छलछलाता नौजवान था। उसके सर में समुद्री बाज़ के पर का हैट था। उसके पैरों में नाविकों जैसे ही चमड़े के मजबूत जूते थे। मैं भी तब चमकती भव्य नाव थी। भव्यता कई बार निस्तब्धता से भर देती है। भव्यता संक्रमित भी करती है ऊँचे पहाड़ उंचाई के अकेलेपन से आक्रांत करके आपको स्थिर कर देते हैं।  श्मशान अपनी नीरवता, अपनी मनहूसियत का कुछ हिस्सा आपको निराशा के रूप में सौंप देता है। चंचल नदियाँ आपके अंतर में तरल कुछ छेड़ जाती हैं। भव्य ईमारतें आपमें संभ्रात और पुरातन स्मृतियाँ जीवित कर देती हैं। असीम समुद्र आपको गहरे चिंतन में धकेल देता है और आकाश का विस्तार आप में शून्य भर देता है। यह सब भव्यताएँ हैं , संक्रमित करने वाली भव्यताएं। आप में खुद को भरने वाली भव्यताएं। वह नाविक भी मेरी  सुरचित ग्रहणीय भव्यता से आकर्षित हुआ और मुझे लेकर तरलता के साम्राज्य में फिरने लगा। मन्वंतर बीते, कल्प बीते एक दिन मुझे मुसलसल तैरने से थकावट होने लगी मेरा नाविक भी पानी के असीम विस्तार पर भटकते - भटकते थक गया था। मेरी आँखें लगातार कई साल सूरज की रौशनी का सामना करते - करते चौंधियाने लगी थीं। मेरे विशाल पाल जो उत्साही पक्षी के पंखों जैसे दिखते थे, फट गए थे। देह जर्जर हो गई थी। वह भी मुक्त होना चाहता था, मैं भी निर्वाण पाना चाहती थी। लेकिन हमारे पास कुछ भय थे

मेरे नाविक को उन राजाओं से भय होता था जो नाविकों से सफर की कहानियाँ सुनकर मनोरंजन करते हैं। जिन्हें  हर कथा में चमत्कार चाहिए होता है. हर बात में मनुष्य की अदम्य  जिजीविषा के आश्चर्यजनक किस्से चाहिए होते हैं। हमें उनसे भय होता था जो हर  तरह की साधारणता के खिलाफ थे. जिनके पास हर चीज के लिए एक "उपयोग" था। मुझे सागर किनारे की शुष्क रेत में धंसे रहकर अपनी भव्यता का क्षरण देखते रहने से भय होता था।  फिर मुझे संग्रहालय में नमूने की तरह रखे जाने से भय होता था। लोग मेरी भव्यता के उदाहरण देते, मुझे काँच के बाहर से नाक गड़ा कर निहारते। मुझे इस निरीह -पने से भय होता था। इससे बेहतर होता वे मुझे ईंधन समझकर आग में झोंक देते, लेकिन समाज को युवावस्था की उपयोगिता को बुढ़ापे में संग्रहणीय प्रतीक  भर बना देने  के कई षड़यंत्र आते हैं

मैंने अपने नाविक से कहा कि वह मेरे हृदय के तल को निशाना बनाकर एक तीर छोड़े, मैं इस सागर में ही डूब जाना चाहती हूँ। तीर निशाने पर लगा. मेरे ह्रदय से समुद्र का नमकीन रक्त बलबला कर बाहर आया।  मैं समझ नहीं सकी कि मेरे कष्ट से समुद्र की छाती फट गई या मेरे दुःख पर बिलखते समुद्र उसके अश्रु ही मेरे रक्तबिंदु थे साथ रहते शायद मेरी धमनियों में उसका खून बहने लगा था। अंतर्मुखी लोगों की अश्रुधार भी अन्तः सलिला होती है, समुद्र से अधिक अंतर्मुखी और कौन हो सकता था। तल पर हुए छेद से मैं डूब गई। मैंने समुद्र तल में समाधि ले ली और मेरे नाविक को लहरों ने किसी तट पर उलीच दिया।  वह दुर्घटना से स्मृतिहीन हो गया और बहकर वहां पहुँचा जिस द्वीप में कोई उसे मेरे साथ जोड़कर नही देखता। अब वह अपनी पहचान खोकर निरुद्देश्य भटकता है। अब भी कुछ खोजी तैराक वहां आते हैं , जहाँ समुद्र तल में मैं समाधिस्थ हूँ।  वे सब कोई छिपा खज़ाना ढूँढने आते हैं, और निराश होकर लौट जाते हैं। समुद्र किनारे की रेत की शुष्कता कई नाविकों की स्मृतिहीनता है जो उत्साह भटक जाते हैं, वे स्मृतिहीन हो जाते हैं जो भव्यताएँ डूब गई हो, ज़रूरी नहीं कि उनके पास हमेशा कोई छिपा ख़जाना हो ही।

5 comments:

  1. A great poem, congratulations, Lovely Goswami-Ji!! It brings back the countless stories of the sea and the seafarers.....particularly the stories of Gabriel Garcia Marquez. From Partha Choudhury 15/10/16

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  2. समुद्र से अधिक अंतर्मुखी और कौन हो सकता था। जो उत्साह भटक जाते हैं, वे स्मृतिहीन हो जाते हैं । जो भव्यताएँ डूब गई हो, ज़रूरी नहीं कि उनके पास हमेशा कोई छिपा ख़जाना हो ही।
    ..बहुत सुन्दर..

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  3. https://bulletinofblog.blogspot.in/2016/11/2016-1.html

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  4. यह जितनी कविता है उतनी ही कथा भी। अदम्य रचनात्मकता विधाओं का अतिक्रमण शायद ऐसे ही करती है। आप हर बार नए ढंग से विस्मित करती हैं। ��

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