Saturday, December 19, 2015

एक कविता, एक लोककथा.

शतकत्रय के महान रचनाकार राजा भृतहरि एक बार शिकार करने जंगल गए. उन्होंने एक काले हिरण का शिकार किया. यह एक मान्यता है कि एक काला हिरण 126 हिरणियों का पति होता है. मरते - मरते हिरन राजा से कहता है - राजन यह तुमने अच्छा नहीं किया, फिर भी अब जबकि मेरी मृत्यु क़रीब है मैं तुमसे अनुरोध करता हूँ कि मेरे सींग श्रृंगी बाबा को, नेत्र चंचल स्त्री को, खाल साधु संतों को, पैर चोरों को और मेरे शरीर की मिट्टी राजा को देने का उपक्रम करो तो मेरी आत्मा को शांति मिले। राजा ने हाँ कहा और हिरण को लादकर लौटने लगा तब उसे गुरु गोरखनाथ मिल गये। आगे की कथा फिर कभी। अभी इतना कि इसी हिरण की कथा पर आधारित मेरी इस बहुत पुरानी कविता का युवा साथियों ने यहाँ नाटकीय रूपांतरण किया था. यह एक संकलन में भी आई थी. नाटकीय प्रस्तुतीकरण का यू - ट्यूब लिंक पोस्ट में नीचे संलग्न है।  प्रस्तुतीकरण बैंगलोर के साहित्यप्रेमी मित्रों सुबोध जी और लक्ष्मी जी के बुकस्टोर आटा - गलत्ता के यूट्यूब चैनल के सौजन्य से साभार लिया गया है .साथ लगाया गया चित्र मित्र दीपशिखा शर्मा द्वारा लिया गया है.




कायांतरण
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याद करती हूँ तुम्हें
जब उदासीनता के दौर धूल के बग़ूलों की तरह गुजरतें हैं
स्मृतियों की किरचें नंगे पैरों में नश्तर सी चुभती हैं
याद करती हूँ और उपसंहार के सभी अनुष्ठान झुठलाता
प्रेम गुजरता है आत्मा से भूकम्प की तरह
अब भी सियासत गर्म तवे सी है
जिसमे नाचती है साम्प्रदायिकता और नफरत की बूँदे
फिर वे बदलती जातीं हैं अफवाहों के धुएं में
दंगों के कोलाहल में

अब भी नाकारा कहे जाने वाले लोगों की जायज – नाजायज औलादें
कुपोषण से फूले पेट लेकर शहरों के मलबे में बसेरा करती हैं
होठों पर आलता पोतती वेश्याएं अभी भी
रोग से बजबजाती देह का कौड़ियों के मोल सौदा करती है
मैं वहां कमनीयता नही देखती
मैं वहां वितृष्णा से भी नही देखती
उनसे उधार लेती हूँ सहने की ताक़त

दुःख की टीस बाँट दी मैंने
प्रेमियों संग भागी उन लड़कियों में
जिन्हे जंगलों से लाकर प्रेमियों ने
मोबाइल के नए मॉडल के लिए शहर में बेंच दिया
उन किशोरियों में जिनके प्रेम के दृश्य
इंटरनेट में पोर्न के नाम पर पाये गए
तिरिस्कार का ताप बाँट दिया उनमे
जो बलात्कृत हुईं अपने पिताओं – दाताओं से
जिनकी योनि में शीशे सभ्यता की रक्षा के नाम पर डलवाये गए

तुम्हे याद करती हूँ कि
दे सकूँ अपनी आँखों का जल थोड़ा – थोड़ा
पानी मर चुकी सब आँखों में
हमारी राहतों के गीत अब
लगभग कोरी थालियों की तृप्ति में गूंजते हैं
देह का लावण्य भर जाता है सभ्यता के सम्मिलित रुदन में
कामना निशंक युवतियों की खिलखिलाहट का रूप ले लेती है

अक्सर याद करती हूँ तुम्हे
सभ्यताओं से चले आ रहे
जिन्दा रह जाने भर के युद्ध के लिए
दुनिया भर के प्रेम के लिए
उजली सुबह के साझा सपने के लिए
फिर मर जाने तक जिन्दा रहने के लिए.
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(मैं नही जानती कविता पढने वाली यह युवा साथी कौन हैं, अगर कोई जानता हो तब उन तक मेरा आभार अवश्य प्रेषित करें। )

- लवली गोस्वामी

1 comment:

  1. वाचिका ने भाव के अनुरूप पाठ किया है . विचलित करती , तिलमिलाती कविता . यह पुरानी तो नहीं लगती .

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