बेतरतीब टहनियों के बीच लटके मकड़ियों के उलझे जाल
आकाश की फुसफुसाहट है जंगल के कानों में
धरती पर बिखरी पेड़ों की उथली उलझी जड़ें
उन फुसफुसाहटों के ठोस जवाब में लगते धरती के कहकहे हैं
आकाश की फुसफुसाहटों में न उलझकर
चालाक मकड़ियाँ उस पर कुनबा संजोती हैं
जो तितलियाँ दूर तक उड़ने के उत्साह में
नज़दीक़ लटके जाले नही देख पाती
वे पंखों से चिपक जाने वाली
लिसलिसी कानाफूसियों से हारकर मर
जाती हैं
धरती की हंसी को नियामत समझकर
विनम्र छोटे कीट वहां अपनी विरासत बोते हैं
लेकिन उन अड़ियल बरसिंघों को सींग फंसा कर मरना पड़ता हैं
जो हंसी के ढाँचे को अनदेखा करते हैं
(2)
स्मृतियों से हम उतने ही परिचित होते हैं
जितना अपने सबसे गहरे प्रेम की अनुभूतियों से
पौधे धूप देखकर अपनी शाखाओं की दिशा तय कर लेते हैं
प्रेम के समर्थन के लिए सुदूर अतीत में कहीं स्मृतियाँ
अपनी तहों में वाज़िब हेर - फेर कर लेती हैं
हम प्रेम करते हैं या स्मृतियाँ बनाते हैं
यह बड़ा उलझा सवाल है
तभी तो हम केवल उनसे प्रेम करते हैं
जिनकी स्मृतियाँ हमारे पास पहले से होती है
या जिनके साथ हम आसानी से स्मृतियाँ बना सकें
(3)
जाता हुआ सूरज सब कलरवों की पीठ पर छुरा घोंप जाता है
गोधूलि की बेला आसमान में बिखरा दिवस का रक्त अगर शाम है
तो रौशनी की मूर्च्छा को लोग रात कहते हैं
जब वह उनींदी लाल आँखें खोलता मैं उसे सुबह कहती थी
जब अनमनापन उसकी गहरी काली आँखों के तले से
नक्षत्र भरे आकाश तक फैलता मेरी रात होती थी
(4)
टहनियों के बीच टंगे मकड़ियों के जालों के
बीच की खाली जगह से जंगल की आँखें मुझे घूरती है
मेरे कन्धों के रोम किसी अशरीरी की उपस्थिति से
चिहुँककर बार - बार पीछे देखते हैं
उन्हें शांत रहने को कहती मैं खुद कभी पीछे मुड़ कर
नहीं देखती
ऐसे मुझे हमेशा यह लगता रहता है कि वह मुझसे कुछ ही दूर
बस वहीं खड़ा है जहाँ मैंने अंतिम दफ़ा उसे विदा कहा था
प्रेम में उसका मेरे पास न होना
कभी उसकी उपस्थिति का विलोम नही हो पाया
मुझे लौटते देखती उसकी नज़र को
मैं अब भी आँचल और केशों के साथ कन्धों से लिपटा पाती हूँ
(5)
हरे लहलहाते जंगलों में लाल - भूरी धरती फोड़कर
उग आये सफ़ेद बूटे जैसे मशरूम उठाती मैं सोचती हूँ कि ये
मकड़ी के सघन जालों के बीच
की खाली जगह से गिर गए
जंगल के नेत्र गोलक है
जंगल हमेशा मुझे अविश्वास से देखता है
जैसे वह मेरा छूट गया आदिम प्रेमी है
जो अधिकार न रखते
हुए भी यह जरूर जानना चाहता है
कि इन दिनों मैं क्या कर रही हूँ
अविश्वाशों के जंगल में मैंने उसे हमेशा
लौट आने के भरोसे के साथ खोया था
वह मेरे पास से हमेशा न लौटने के भरोसे के साथ
गया
(6)
मेघों की साज़िश भरी गुफ्तगू को बारिश कहेंगे
तो सब दामिनीयों को
आकाश में चिपकी जोंक मान लेना पड़ेगा
उन्होंने सूरज का खून चूसा तभी तो उनमें प्रकाश है
आसमान के सब चमकीले सूरजों को चाहिए कि वे स्याह ईर्ष्यालु
मेघों से बच कर चलें
मेघों के पास सूरज की रौशनी चूस कर चमकने वाली जोंकों की फ़ौज होती हैं
जो उनका साथ देने को रह - रह कर अपनी नुकीली
धारदार हंसी माँजती है
कुछ लोग दामिनीयों जैसे चमकते हुए उत्साह से तुम्हारे जीवन में आएंगे
स्याह मेघों की फ़ौज़ के हरकारे बनकर
तुम दिखावटी चमक के इन शातिर नुमाइंदों से बचना
ये थोड़े समय तक झूठे उत्साह के भुलावे देकर
तुम्हारे भीतर की सब रौशनी चूस लेंगे.
(वसुधा - ९९ में प्रकाशित )
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