सधे हाथों से उम्र की तंदूर में
मेरा कच्चा प्रेम सेंकते हो तुम.
भोजन की इच्छा में तुम्हारे पास ही बैठी मैं
तुम्हे अपलक निहारती हूँ
तमाम रात तुम बिखरी लौ बीनते हो
तुम्हारी ओट पाकर कभी कोई छाया खड़ी नहीं होती
रस गंध स्वाद और आंच का कोरस है प्रेम
यह तुमसे मिलने से पहले मैंने नहीं जाना था
चाँद गहरे चषक में तुम्हारे बाजू पड़ा
सफ़ेद खुम्बियों का शोरबा है
सफ़ेद खुम्बियों का शोरबा है
यह प्रेम है, जो कभी मुझे अतृप्त सोने नहीं देता
यह प्रेम है कि धीमी आंच का सोंधापन
कभी मुझसे छिनता नहीं है
कैरी और फल का भेद जानना
तुम्हारी रसोई की रहस्यमयी कला है
चटकारों से लेकर तृप्तियों तक मेरा हर स्वाद
तुम्हारी ही उँगलियों में पला है.
( दैनिक जागरण "पुनर्नवा " २७ नवंबर में प्रकाशित )
प्रेम कभी प्रेमी है तो कभी माँ तो कभी अनंत रहस्य जो बस तृप्त करता है ...
ReplyDeleteगहरा ... सुन्दर लेखन ...