Sunday, July 7, 2019

एक कविता.

 विलोम 


मछलियों ने पानी बीच फंसी हवा
गलफड़े में भरी 

बौछार में भीगते हुए मैंने
बूदों से ख़ाली जगह में साँस खींची

बारिश की बूंदे
बुलबुलों का विलोम नहीं होती.

                  एक भगौने में मछली
                  देर तक तैरती रही

                  एक पनडूब्बी के भरोसे मैंने
                  दरिया के पेट में पनाह ली

                 किसी तरह जिंदा रह लेना,
                 मर जाने का विलोम नहीं होता.

मैंने कोमल शब्दों के बनने में
दांतों की भूमिका तलाशी   

कठोर शब्दों के बनने में
जीभ की

कोमल और कठोर का उच्चारण किया
और भाषा के धोखे पर हंसी.

                पकड़ी गयी अधिकतर
                मछलियों के गले में कांटे फसे थे

               अपवाद थी वे मछलियाँ
                जिनके कांटें खाने वाले के गले में फंसे

                फिर भी मछलियाँ
                शिकारी का विलोम नहीं होती.

2 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 04 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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