अध्याय -2
अ वॉक डाउन द मेमरी लेन
मैं आगे की कहानी बताऊँ, इससे पहले आप का यह जानना ज़रूरी है कि मेरे माता–पिता अब इस दुनिया में नहीं हैं। मेरे बचपन में उनकी मृत्यु हो गई थी। मुझे मेरी माँ की सहेली सरला शर्मा ने पाल-पोसकर बड़ा किया है। मैंने अपने माँ–बाप को सिर्फ़ तस्वीर में देखा है।
अब फिर से उस गोल कमरे की बात —
क़ायदे से इस वक्त कोई भी आम इन्सान यह सोचेगा कि इस टूरिस्ट स्पॉट में ज़मीन पर पड़े इस चाकू का क्या अर्थ है? किसने इसे यहाँ रखा होगा? यह यहाँ कैसे आया होगा? लेकिन जाने क्यों, मैं यह जिज्ञासा महसूस नहीं कर रही थी। न जाने उस जगह में, उस माहौल में, ऐसा क्या था कि मुझे लगा, मैं दुःख और अवसाद से इस कदर घिरी हुई हूँ कि मेरे जीवन का कोई अर्थ नहीं है! मुझे एक आदमी की दर्द-भरी चीख सुनाई दी। फिर एक औरत के सिसकने की आवाज आई। फिर किसी ने मेरा नाम पुकारा। मैंने सामने देखा, तो मुझे अपने असली माता–पिता के चेहरे दिखाई दिए।
अनुभा कौशल और समर्थ कौशल।
मुझे महसूस हुआ कि वे दोनों मुझे अपने पास बुला रहे हैं। वे मुझे देख मुस्कुरा रहे थे। बीच-बीच में रो भी रहे थे। मैं भी कुछ रोती, कुछ मुस्कुराती-सी बुदबुदाई।
“क्या आप मेरे माँ–पापा हैं?”
“हाँ मुग्धा, हम ही हैं।” मेरे पिता समर्थ कौशल बोले।
“क्या आपने मुझे बुलाया? फोन में आपकी आवाज थी माँ?” मैंने माँ को देखकर पूछा।
“हाँ, मैंने ही तुम्हें आवाज दी थी! मुग्धा, आओ! हमारे पास आ आओ! हमारे सीने से लग जाओ!”
माँ ने वात्सल्य में भरकर बांहें फैला दी। मैं किसी अबोध बालक की तरह उनसे लिपटने के लिए आगे बढ़ी। लेकिन उनकी देह तो जैसे हवा से बनी थी। मैं उन्हें छू नहीं पा रही थी।
“माँ!!” मैंने प्रश्नसूचक नज़रों से माँ–पापा की तरफ़ देखा।
“तुम्हारी देह तुम्हें हमसे अलग कर रही है, मुग्धा। उस दुनिया को छोड़ दो! इस देह से मुक्त हो जाओ! फिर हम सब यहाँ साथ रहेंगे। फिर कभी कोई हमें अलग नहीं कर सकेगा।” मेरी माँ अनुभा बोली।
मुझे ठीक लगा। मुझे लगा, मुझे अब जीवन की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं हमेशा से जो चाहती थी, वह मुझे मिल रहा है। मैंने पास पड़ा चाकू उठा लिया। मैंने अपना हाथ काटने की कोशिश की ही थी कि तभी मेरे माता–पिता की आकृति को चीरती, एक सजी-धजी अजनबी स्त्रीकाया हवा में प्रकट हुई। उसने मेरी आँखों के पास हथेली खोली। उसकी हथेली में कोई बैंगनी पाउडर था। उसने उस पर फूंक मारी। मैं तुरंत बेहोश हो गई। यह सब बहुत तेज़ी से हुआ। उस स्त्री ने सही समय पर मुझे आत्महत्या करने से रोका था, फिर भी मेरी कलाई में चाकू की खरोंच का ज़रा-सा निशान बन ही गया था। मैं पाउडर के प्रभाव से तुरंत बेहोश हो गई। इसके साथ ही मेरे हाथ से छूटकर चाकू वहीं गिर गया। मैं ज़मीन पर गिरने ही वाली थी कि उस स्त्री ने मुझे थाम लिया। इसके बाद जब मुझे होश आया, तो मैं अपनी टूरिस्ट बस में एक खिड़की के शीशे से सर टिकाये बैठी थी और मेरी सहेलियाँ दिन-भर के ट्रिप के बारे में बातें करते हुए हंस रही थीं।
मेरा सर भारी था।
“मैं यहाँ कब आई?” मैंने बगल में बैठी लड़की से पूछा।
“तुम कब आई, तुम्हें ही मालूम होगा न। हमें नहीं मालूम। जब हम यहाँ आए, तो तुम सीट पर बैठी, खिड़की के कांच पर सर रखे सो रही थी।” वह मुँह बिचका के बोली।
मैं अक्सर ‘बुली’ की जाती थी। मेरी सहपाठिनों ने मेरा नामकरण भोंदू, वीयर्ड और न जाने क्या-क्या कर रखा था। मैंने सीट से उचक कर सर उठा कर पूरी बस को देखा। वहाँ मेरे सहपाठियों और टीचर्स के अलावा कोई नहीं था। सब सामान्य ढंग से हंस रहे थे और बातें कर रहे थे। फिर मैंने अपनी कलाई देखी। वहाँ ज़रा-सी खरोंच थी। यानि चाकू वाली बात सपना या मेरा भ्रम नहीं था। मैं किसी से इस बारे में बात करना चाहती थी, लेकिन न जाने क्यों मुझसे कुछ कहा नहीं गया। बचपन से जब भी मैं कुछ अजीब होता देखती और किसी से कहने की कोशिश करती थी, लोग मेरा मजाक उड़ाते थे।
फिर भी मैंने अपनी सहपाठीन तृष्णा से पूछा, “अच्छा सुनो, क्या महल में मिले फोन में कोई म्यूजिक बजा या किसी औरत की आवाज सुनाई दी थी?”
“नहीं तो! हमारे फोन में तो मेल गाइड की आवाज थी। क्यों तुम्हारे में कुछ स्पेशल था क्या?”
तृष्णा ने व्यंग से कहा। फिर वह मुड़ी और चार-पांच सीट पीछे तक आवाज सुनाई दे, इतना चिल्ला कर बोली:
“अरे, सुनो सब! मुग्धा मैडम को महल में स्पेशल ट्रीटमेंट मिला! इनके फ़ोन में कोई औरत थी और उसने इनको म्यूजिक भी सुनाया! हा हा!... क्या वह तुम्हारी मरी हुई माँ थी, मुग्धा?”
तृष्णा ने चिढ़ाने के लहजे में कहा और सब खी–खी करके हंस पड़े। मैं रुआंसी हो गई। आंसू छिपाने के लिए मैंने खिड़की की तरफ़ मुँह फेरा और सोने का नाटक करके आँखें बंद कर ली। वह बचपन था, जब मैंने सोचा था कि इससे अजीब मेरे साथ क्या हो सकता है। आज, अभी, मुझसे कोई कहे कि उसने आसमान से हाथी बरसते देखा या तालाब में बतख की जगह ऊंट तैरते देखे, तो मुझे रत्ती-भर भी अजीब नहीं लगेगा।
अभी इस जानलेवा भिड़ंत के समय मैं बुरी तरह डरी हुई हूँ। मुझे मर जाने का डर नहीं है। डर है अपनी पालने वाली माँ सरला शर्मा और भाई अनूप से फिर न मिल पाने का। मुझे कुछ करना होगा, मैं उन्हें इस दुनिया में अकेला छोड़कर नहीं मर सकती। थोड़ी देर पहले मैंने गोलियों से डर कर कान बंद कर लिए और झुक कर मलबे में छिप गई थी। जब मैंने फायरिंग के बीच आँखें खोली, तो वह आदमी जो मेरी सुरक्षा करने की कोशिश कर रहा था, अब मेरे बगल में लाश बनकर पड़ा और मैं पुलिस वाले के गन पॉइंट पर थी। यह सब एक बुरे सपने सपने जैसा है, एक ऐसा सपना जिससे आप निकलना चाहें, लेकिन निकल न सकें। आप सोच रहे होंगे, मेरे साथ यह सब कैसे और क्यों हुआ? मैं आगे आपको यही बताना चाहती हूँ।
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