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Thursday, April 14, 2016

एक गीत और एक कथा की कहानी

आज मैं आपको सिर्फ एक कहानी सुनाऊंगी।  यह कथा मैंने बचपन में अपने परिवार में किसी से सुनी थी। उसके बाद यह कथा मैंने अपने पसंदीदा विचारक और मिथकशास्त्रीओं में से एक ए. के रामानुजन की कैलिफोर्निया प्रेस से प्रकाशित किताब में दुबारा पढ़ी । यह एक रोचक कहानी है। 

बहुत समय पहले की बात है एक गाँव में एक गृहिणी थी. उसके पास एक गीत था और एक कहानी थी। कहानी और गीत उसने अपने मन के भीतर छिपा रखे थे। वह किसी से इनका जिक्र नहीं करती थी।  कहानी और गीत को इस बात से बहुत दुःख होता।  वे अपना प्रकटन चाहते थे वे सुदूर गाँव - नगर फैल कर  मशहूर होना चाहते थे , लेकिन महिला थी कि कभी उन्हें अपने मुख से बाहर ही न आने देती। इससे कहानी और गीत दोनों बहुत क्षुब्ध हुए। उन्होंने मौके की तलाश की और एक दिन जब महिला मुँह खुला रखकर सोई दोनों उसके खुले मुँह के रास्ते उसके भीतर से निकल गए।  दोनों आज़ादी तो चाहते ही थे साथ ही साथ उस महिला से बदला भी लेना चाहते थे। बाहर आकर कहानी ने जूते का रूप ले लिया और गीत ने पुरुषों द्वारा पहने जाने वाले लबादे का रूप धारण किया। कहानी जूते का रूप लेकर दरवाजे पर जा बैठी और गीत चुपचाप खूँटी पर लटक गया। गृहिणी का  पति काम से लौटा। उसने द्वार पर पुरुष के धारण करने योग्य जूते और खूंटी पर टंगा लबादा देखा। पुरुष यह देखकर स्त्री के पास गया और उसने पूछा  " मेरी गैर हाज़िरी में यहाँ कौन आया था।"
स्त्री ने जवाब दिया " कोई नहीं" किन्तु पुरुष इस उत्तर से संतुष्ट न हुआ। उसने फिर पूछा "अगर कोई नहीं, तो यह जूते और यह पहनावा किसका है ? " . स्त्री ने कहा "मैं नहीं जानती " . पुरुष को स्त्री की बात पर यक़ीन नहीं हुआ। उसे लगा कि उसकी पत्नी उससे झूठ बोल रही है और वह उत्तर से असंतुष्ट होकर उससे झगड़ने लगा। पुरुष स्त्री के चरित्र को लेकर शंकित था, महिला लगातार इस पुरे प्रकरण से अपनी अनभिज्ञता जता रही थी। दोनों में जमकर बहस हुई और फिर झगड़ा हुआ, लेकिन फिर  भी स्त्री यह मानने को तैयार न हुई कि उसने कुछ गलत किया है. पुरुष गुस्से से घर से कम्बल लेकर मंदिर में जाकर, ओढ़कर पड़ गया और स्त्री घर पर औंधे मुंह पड़ी सुबकती रही। उसे यह तक समझ न आया कि उसे किस बात की सजा दी जा रही है। वह बार - बार खुद से यही पूछती रही कि आखिर यह कपडे - जूते आये कहाँ से ?
रात को जब गांव के सब घरों के लालटेन बुझा दिए जाते थे, तब लालटेनों की रौशनियां मंदिर में जाकर अपनी सभा लगाती थीं । इस घर का लालटेन क्योंकि देर से बुझाया गया इसलिए यह रौशनी अपनी हाज़िरी देर से लगा पाई । जब यह रौशनी वहां पहुंची तो बाकी के सब लालटेनों की रौशनियां उससे पूछने लगी कि "आज तुम्हे देर कैसे हो गई ?" तब इस रौशनी ने बताया कि उसके मालिक - मालकिन में झगड़ा हो गया था. वे देर तक जागते रहे इसलिए उसे भी देर रात तक वहीँ जलना पड़ा और इसी वजह से उसे सभा में आने में देर हो गई।  अब वहां उपस्थित दूसरी  रौशनियों ने जानना चाहा कि पति - पत्नी में आखिर झगड़ा क्यों हुआ था ?
 तब इस लालटेन की रौशनी ने सबको यह बताया कि किसी अनजाने मनुष्य के कपडे और जूते उसके घर में उसके मालिक की अनुपस्थिति में प्रकट हो गए थे एवं मालिक के लौट कर आने और इस बाबत पूछने पर उसकी मालकिन कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पाई जिससे मालिक को उसके चरित्र पर शक हो गया और वह गुस्सा होकर कहीं और चला गया। दूसरी रौशनियों ने जिज्ञासा की, कि आखिर वे जूते और कपडे घर पर कहाँ से आये। देर से आने वाली रौशनी ने बताया कि मेरी मालकिन के पास एक गीत और एक कहानी थी , लेकिन वह किसी को सुनाती नहीं थी।  महिला के अंदर कहानी और गीत का दम घुटता था इसलिए उन्होंने मौका देखकर खुद को स्वतंत्र किया और मालकिन के खुले मुख से बाहर भाग खड़े हुए।
रौशनियां नहीं जानती थी कि महिला का पति वहीँ उसी मंदिर में सो रहा है। उस मनुष्य ने यह सब बातें सुन ली. उसका गुस्सा जाता रहा। वह उठा और अपने घर गया. घर जाकर उसने अपनी पत्नी से कहानी और गीत सुनाने को कहा। लेकिन आश्चर्य कि अब गृहिणी को कुछ याद नहीं था। उसने कहा - कौन सा गीत ? कौन सी कहानी ?

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यहाँ हमारी कहानी खत्म होती है।  "गीत" और "कथा" की कहानी।

तो निष्कर्ष यह रहे :-

कहनियाँ और गीत बाँटे - सुनाए जाने के लिए होते हैं। अगर आप किसी को वे कहानियां नहीं सुनाएंगे जो आप जानते हैं तो भी किसी न किसी तरह वे मुँह से बाहर आ ही जाएँगी, और तब उनका स्वरुप एकदम अलग होगा। वे दूसरों की नज़र में आपको अनैतिक भी बना सकती हैं । वे आपके और आपके अपनों के बीच शंका के बीज भी बो सकती हैं। अगर लगातार आप अपने अंदर बस रहे गीतों और कथाओं  की अनदेखी करेंगे तो एक दिन आप उन्हें भूल जाएंगे..और सबसे बड़ी बात जब किसी प्रकार प्रत्यय (concept) मुंह से बाहर आ जाता है तब वह दुनिया में  ठोस रूप और आकर ले ही लेता है . इसलिए उसे पूरी तरह ध्यान , सम्मान, समय और शब्द देकर उसी तरह प्रकट करना चाहिए जैसा की वह अपने असल रूप में मन के भीतर है।  इसमें अगर मेहनत और वक़्त लगे तो वक़्त दिया जाना चाहिए। यह दुर्घटनावश नहीं होना चाहिए।

(यह कथा बहुभाषी वेब पत्रिका इंडियरी के इस माह के लिए लिखे गए सम्पादकीय का अंश हैं।  )